एक गीत,जो मेरे मन को छूता है,जिसे,आज
भी सुनती हूं,गुनगुनाने लगती हूं—
’दोस्त,दोस्त ना रहा,प्यार,प्यार
ना रहा,जिंदगी हमें तेरा एतबार ना रहा’.यह गाना,संगम फ़िल्म का है,जिसे मुकेश ने गाया
था.
आज,दोस्ती का अह्सास,ठीक उसी तरह
हो गया है,’दोस्त,दोस्त ना रहा----’
दोस्तियों का मौसम होता है,मकसद होते
हैं,जो मौसम के गुज़र जाने के बाद,गुज़र जाते हैं,और मकसद पूर होने के बाद,बंद किताब
की तरह,शेल्फ़ों में सज़ जाते हैं,कभी-कभी,नज़र से गुज़र जाने के लिए.
आये दिन,अखबारों में, टेलीवीजन के
सीरिअलों में,आधुनिक दोस्ती के किस्से,देखे व सुने जा सकते हैं,जिनका पटाक्षेप,प्रायः,
हत्त्याओं में ही होता है.
कितना मोहक,दिल को छू देने वाला अह्सास
है,जिसे,यदि,नैसर्गिक रूप में,निभाया जाय तो,प्रकृति का हर रूप,मुखरित हो उठे,पेड-पौधों
पर यदि,दोस्ती का स्पर्श रख दिया जाय,तो वे भी झूमने लगें.यदि,पालतू जानवरों को भी
इसी स्पर्श से सहलाया जाय,तो वह,जीवन-भर के लिये आपका हो जाय और,कृतग्यता का पानी उसकी
आंखों में तैर जाय.
दोस्ती का एक अह्सास, अपने मूल-भाव
में,इतना पवित्र है कि, जिसे जब भी गुना जाय,अंतर्मन,
झंकरित हो उठता है. श्री कृष्ण और
सुदामा की मित्रता,यह अह्सास,हजारों दर्शन में,विभिन्न-रूप से वर्णित हुआ और,सदियों
बाद भी,हमारे जीवन में,अपनी ईश्वरीय-नैसिर्गिकता के साथ व्याप्त है.
ऊंची-ऊंची,अट्टालिकाओं में,विचरण
करने वाले,सोने के सिंघासन पर,विराजमान होने वाले,दास-दासियों से घिरे,श्री कृष्ण को
जब द्वापाल यह सूचना देता है कि,द्वार पर एक गरीब ब्राह्मण,जिसके तन पर फटी लंगोटी
है,नंगे पैरों से खून बह रहा है,पैर,धूल-धूसिर हैं,बगल में एक छोटी सी पोटली दबाए हुए
है,आपको,अपना मित्र बता रहा है और अपना नाम सुदामा.
यह सुनना था कि,श्री कृष्ण,सिंघासन
छोड,द्वार की ओर भागे चले जा रहें हैं,उनका पीतांबर,कंधे से
उतर कर धरती पर गिर गया,दौनों हाथ
आगे फैलाए हुए---सुदामा,मेरे मित्र,सुदामा मेरे मित्र---
मुंह से निकलता जा रहा है,आंखों से,अश्रुधारा
बह रही है-----
यह अह्सास,मित्रता का,जो प्रकृति
ने हमें ,हमारे आस्तित्व के साथ दिया,जिसके समक्ष , अट्टालिकाएं,राज-पाट,दास-दासियां,धूल
हो गईं---अह्सास,जो सत्य था,रह गया.
इससे आगे,इस कहानी का विस्तार,शब्दों
के परे है---कवियों ने,ग्रंथ लिख डाले,समय-समय पर
नाट्यों के माध्यम से,इस अह्सास को
पिरोया गया,परन्तु,क्या यह संभव हो पाया होगा,उस अह्सास को दुबारा जी पाएं होगें,इन
माध्यमों के द्वारा जो,उन दो मित्रों ने जिया—दौनो बाहों बधें,एक-दूसरे के अश्रुओम
से पवित्र होते रहे,क्योंकि,मित्रता की पराकाष्टा यही है.
सच में, ऐसा उदाहरण पुनः मिलना कठिन है..
ReplyDeleteदोस्ती अपने आप में एक अनोखी किरण है... दोस्त से बढ़कर कुछ भी नहीं होता....
ReplyDeleteशुक्रिया ज़िन्दगी.....
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 12 -07-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... रात बरसता रहा चाँद बूंद बूंद .
दोस्ती...नेमत है.
ReplyDeleteवर्तनी की अशुद्धियाँ खटकती रहीं .
दोस्ती का सुंदर एहसास ... पर अब ऐसे उदाहरण भला कहाँ ?
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