मुझे याद आता है—
गांव की कुए की जगत पर
पैर लटकाये,लूओं की चादर—
ओढ लेना---
मंदिर के चबूतरे पर
भारी सा बड का पेड—
जब छेडता था, अपनी बांहों से
धकियाता था,सारी धोपहर—
यादों
की गाडी के दो बैल
फेर कर मुंह,क्यों खडे
हो गये हैं
हांकती हूं—आगे की ओर—
क्यों
लौटते हैं—पीछे की ओर---
सुन्दर यादों का ज्ञात खजाना ता भूतकाल में ही होता है..
ReplyDeleteशायद इन्ही यादों में भी बिखरे हैं स्वर्ग चारों तरफ ... ये यादें संबल हैं आज का ...
ReplyDeleteयादे हमेशा यूँ ही साथ क्यूँ चलती हैं ?
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
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