मैने सुना है—स्वर्ग के एक रेस्त्रां में एक छोटी सी घटना
घट गई.
उस रेस्त्रां में तीन अदभुत लोग एक टेबल के चारों ओर बैठे
हुए थे—गोतम बुद्ध,कनफुशियस और लाओत्से.
वे तीनों एक स्वर्ग के रेस्त्रां में गपशप कर रहे थे.फिर एक
अप्सरा जीवन का रस लेकर आई और कहा—जीवन का रस पीएगें?
बुद्ध ने आंखे बंद कर लीं और कहा—जीवन व्यर्थ है,असार
है,कोई रस नहीं.
कनफुशियस ने आंखे आधी बंद कर लीं,आधी खुली रख लीं.
वह गोल्डेन मीन को मानता था—हमेशा मध्य-मार्ग.
उसने अधखुली आंखो से देखा और कहा—थोडी चखूंगा,अगर आगे भी
पीने योग्य हुआ तो सोचूंगा.
लाओत्से ने पूरी की पूरी सुराही हाथ में ले ली और जीवन के
रस को बिना कुछ कहे पूरा पी गया.
लाओत्से कहने लगा—नाच उठा हूं मैं.अदभुत था जीवन का रस.
और अगर जीवन-रस अदभुत नहीं है तो और क्या अदभुत हो सकता है?
जिनके लिये जीवन ही व्यर्थ है तो सार्थकता कहां मिलेगी?
क्योंकि जीवन ही है एक सारभूत,जीवन ही है एक सार,जीवन ही है
एक सत्य.
उसमें ही छुपा है सारा सौंदर्य,सारा आनंद,सारा संगीत.
साभार—युवक कौन? संभोग से समाधि की ओर, ओशो.
सुन्दर विचार
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