धर्म के दो रूप हैं---
जैसे कि सभी चीजों के होते हैं.एक स्वस्थ और दूसरा अस्वस्थ.
स्वस्थ धर्म तो जीवन को स्वीकार करता है,अस्वस्थ धर्म जीवन
को अस्वीकार करता है.
जहां भी अस्वीकार है वहीं अस्वास्थय भी है.अस्वस्थ धर्म
जीवन को अस्वीकार करता है.
तो जिन धर्मों,शास्त्रों में कहा गया है,स्त्री-पुरुष दूर
रहें,स्पर्श ना करें,मैं उन्हें रुग्ण
परमात्मा जगत की ही गहनतम अनुभूति है,और मोक्ष कोई संसार के
विपरीत नहीं,बल्कि संसार में ही जाग जाने का नाम है.
मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं---उसके समस्त रूपों के
साथ.
स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण है,वह अगर हम ठीक समझें तो
जीवन का ही आकर्षण है.
प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्यादा किसी दूसरे
को मान रहा हूं.इसका मतलब है यह है कि मेरा सुख गौंण है,अब किसी का सुख ज्यादा
महत्वपूर्ण है.
तो प्रेम से सबसे ज्यादा पीडा उनको होती है,जिनको अहंकार की
कठनाई है—तो अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता.
जिनका प्रेम का द्वार बंद है,उनके जीवन का द्वार भी बंद है.
आदर तभी पैदा होता है,जब हमसे विपरीत कोई कुछ कर रहा हो,जो
हम ना कर पा रहे हों.
हम प्रेम भी कर रहे
होते हैं---गहरे में कहीं लग रहा होता है,कुछ गलत कर रहे हैं----और
अपराध-बोध से सुख मिलना बंद हो जाता है.
तो विशियस सर्किल
है---जितना गहरा पाप मानते हैं,उतना गहरा दुखः मिलने लगता है.
सारे सन्यासियों
को स्त्रियां सताती हैं----इसमें उनका कोई कुसूर नहीं है---इसमें उन्हीं की
भाव-दशा है.
मेरा तो मानना है
कि जीवन में मुक्ति का एक ही उपाय है कि जीवन का गहन अनुभव हो----
अगर निषेध से रस
पैदा होता है तो अनुभव से वैराग्य पैदा होता है.
जितना गहरा अनुभव
होता है,उतना हम जाग जाते हैं.
भागना क्यों
है,डरना क्यों है,जीवन जैसा है उसके तथ्यों से जागरूक होना है---और इस आकर्षण को
मैं कैसे सृजानात्मक करूं कि इससे मेरा जीवन खिले औ्रर विकसित हो.यह मेरा ध्वंस ना
बन जाय.
तो इस आकर्षण का
प्रयोग ध्यान के लिये हो सकता है.
परमात्मा मेरे
लिये प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है.
मेरा मानना है यह
है कि जो भी प्रकृति से उपलब्ध है उसका समग्र,सर्वागींण स्वीकार.
और----प्रेम से
ज्यादा गहरा कुछ भी नहीं जाता.
ओशो---संकलित संभोग से
समाधि से.
पुनःश्चय----
ओशो—की बहुचर्चित
एंव सर्वाधिक आलोचित पुस्तक—जिसे मैं स्वीकार करती हूं,आज के परिक्षेप में
सर्वाधिक पढने वा जानने योग्य पुस्तक के रूप में—जिसे जब तक ना पढा था—तब तक मैंने
अपने झूठ को भी नहीं जाना था.
मेरा विनम्र
निवेदन है कि मेरे विचारों को किसी भी रूप में आरोपित ना माना जाय.
मैं समझती हूं कि
एक लेखक के रूप में जो भी कहूं वह स्वम पर जांचा हुआ हो---क्यों कि सत्य ही कसोटी
है एक कवि की,एक लेखक की और एक सच्चे इंसान की.
यदि मेरे शब्दों
के द्वारा कोई किसी भी रूप में आहत हो तो मैं विनम्रता से क्षमा मांगती हूं.
(मैं अपने-आप को
ओशो के प्रचारक के रूप में भी नहीं देखना चाहती हूं.बस जो—सत्य लगा कह दिया.)
मन के-मनके
ओशो एक बहुत बड़े विचारक हैं ..मैं भी उनकी प्रचारक नहीं ..पर उनकी पाठक हूँ |
ReplyDeleteGood--nice to hear u.
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