यह जीवन बार-बार महाभारत का क्षेत्र सा,
यह प्रश्न-- शास्वत-निरंतर ढो रहा,मानव निरंतर
निरीह-सर्वहारा-अर्जुन—हथेलियों पर थामे—प्रारब्ध को
और—कृष्ण वांचते कर्म को—थामे हाथ में, जीवन-मंथन की
निर्बंध धार को
चौराहों पर भटकते अर्जुन,घाटों पर घिसटते अर्जुन
वीथियों की धूल में, सने-लिपटे अर्जुन
भूख को-- कोख में निचोडते अर्जुन
जार-जार होते अर्जुन-- भटकते बचपनों में
बूढी आंखो में-- सूखते पानी से अर्जुन
चिथडों में-- हया को ढापते अर्जुन
धिक्कार-दुद्कार-बेहयाई में कांपते अर्जुन
और—सीढियों पर धकियाते अर्जु्नों को अर्जुन
यह महाभारत शास्वत-चिर-निरंतर
मानवीय रक्त की शिराओं में दोडता-निरंतर
लहू को लहू से बुझाता प्रारब्ध की आंच को--अर्जुन
और---कैशव-कृष्ण-माखनचोर
हाथ में थामें कर्म-चक्र और विश्वास-शंख
ढांढस बधांते—ललकारते-पुचकारते-संभालते
कर्म के रथ को हांके लिये जाते—युगों-युगों तक
मानव-जीवन की विडंबना यही सत्य है, कि
बीज-रूप में--- प्रत्येक—यहां-हर-एक अर्जुन ही है---
और---बार-बार कृष्ण को जन्म लेना ही होता है—
हर-दिन एक महाभारत को जीतने के लिये,
अर्जुन को जिलाने के लिये,
प्रारब्ध को पूर्ण करने के लिये.
पुनःश्चय:
’मैं और जीवन’—एक काव्य-रचना श्री प्रवीणजी द्वारा रचित पढ
रही थी---
अनायास ही कुछ पंक्तियां उतर आईं---टिप्पणीं के रूप में
नहीं वरन उनकी लिखित पंक्तियों की धार अनवरत आगे बह चली.
साभार-धन्यवाद.
अर्जुन हर युग में होते हैं अपनी कमजोरियों और निहित शक्तियों के साथ, केवल आवश्यकता होती है एक कृष्ण की जो अर्जुन को उसकी शक्तियों से अवगत करा सके ..बहुत सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसच पूछो तो महाभारत हर युग में होती है .. सभी पात्र होते हैं ... पर शायद अलग अलग नाम से ... बहुत प्रभावी हैं आपकी पंक्तियाँ ...
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