मन में बडी चाह
थी
कि,
कुछ अपनी सी लिख
पाती में,जीवन की
मैं,
भेजूं तुम तक
बातें—दिल की
जो कह ना सकी
अब-तक,तुम से
क्यॊकि,
उन दिनों,मैं भी
घर के कोंनो से
धूल,झाड रही थी
रसोई में---
खडी-खडी—
तुम्हारे पसंद के
सेक रही थी पराठे
आलू के---
जब तुम,
थके-क्लांत घर
लोटो
गरम-सोंधी सी दाल
से
सोंधी सी रोटियां
तुम्हें सोंधा सा
कर दें
तुम्हारे जाने के बाद
मेंज पर बिखरे
पन्नों को
समेटती रहती थी—
ता-दोपहर—
थके-हारे-से लोटो
भर सको---
फिर एक नया रंग
अपने कल के
सपनों में—
शाम को,
चाय की प्यालियां
लिये
तुम्हारे सिराहने
खडी
झ्ंझकोरती रही
हूं
कहीं तुम्हारी
नींद ना टूट जाय
देर रात,
जब तुम--
सोने चले गये
अपनी-अपनी चादरों
में
लिपटे हुए---
तुम्हें,
दरवाजे की ओट से
देखती रही हूं,कि
कल फिर तुम्हारा
एक और नया दिन हो
मेरी छांव तले,
और,दबे पांव लिये
कल के इम्तहांन
को
तुम्हारी किताबों
में
खोजती रही हूं—
देर रात-तलक
यूं ही,
कितने बरस
इन रात-दिन के
चक्रव्यूह में--
फिर से जीवित हो
उठा
अभिमन्यु,
जहां जाना तो है
निकलना ना-मुमकिन
और,
एक-एक कर के,वो
बिस्तरे, सिमटते
गये
पढने की मेजें
बिक गयीं
कबाडों में,ढीली
होकर
फिंक गये,
चाय के
प्याले,चटक कर
कूडेदानों में
दो रह गये---
और,अब तो एक ही
रह गया है.
अब,
देर रात तलक
नींद तो नहीं आती
आदत पुरानी हो
गयी है,
पुरानी आदत जाती
नहीं
लेकिन,
पास के कमरे से
तुम्हारे सो जाने
के बाद की
सांसे---
जो,कहीं दूर
हजारों मील
चली गयी हैं—
जिन्हें अब मैं
सुन भी नहीं पाती हूं
( सुनना तो चाहती
हूं?)
यही सब सोच कर
कुछ पत्र लिखे
थे,तुम्हें
पिछले कुछ दिनों
कि,
कुछ बातें---
बातें वो—दिल की
जो उन दिनों
कह ना पाई
अब कह दूं
और,
तुम पढ लो उन्हें
जान लो उनको
वो राज की बातें
वो बे-बात की
बातें
कि,
कुछ सपने
तुम्हारे
अधूरे रह गये
कोशिश तो की थी
पर,ना हो सकी
लेकिन,
कुछ तो
सपने,तुम्हारे
महका रहे होगें
आंगन को,तुम्हारे
तुम्हें,स्निग्ध
करते तो होंगे
जो मैंने,
अपने आंगन के
गमलों से
उखाड कर—
तुम्हारे गमलों
में
रोप दिये थे—जब तुम
जा रहे थे
अब भी,
वो शब्द बिखरे
पडे हैं
मेरी किताब के
खुले पन्नों पर
कि,जब तुम अपने
घर पहुंचो
रोप लेना
इन्हें,अपने गमलों में
क्या वे,
खुशबुएं फैला रहे
हैं???
प्रत्युतर देना—
अगर हो सके---
नहीं तो कोई बात नहीं
तुम्हारी मां
क्षमा करियेगा—७ अप्रेल
की पोस्ट के बाद आज ८ अप्रेल को एक और पोस्ट डाल रही हूं---केवल पढ लीजियेगा इसे.
भाव थे—आंसुओ में
उतर कर,कब शब्दों में आ गये,पता ही ना चला—और उंगलियां पोस्ट लिखने लगीं.
शाश्वत-भाव---शाश्वत
धारा का रूप ले निर्वद्ध हो बहने लगे तो---उसे स्वीकार कर लेना होता है---और मैंने
किया.
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
khubsoorat
ReplyDeleteपौधे हमेशा खुशबू देंगे ... और फिर जिस जातां से, जिस प्रेम से उन पौधों को रोपा गया यकीनन वो खुशबू ही देंगे ... खुले आकाश की सीमाओं को जब पाता है कोई तो उड़ान की आकांक्षा होती ही है और कुछ स्वप्न जो स्वयं ही रोप हों आपने उनकी महक पूरे न होने वाले सपनों से ज्यादा होती है ....
ReplyDeleteदिल को छूती बहुत मर्मस्पर्शी रचना..
ReplyDeleteदिल को छूती बहुत मर्मस्पर्शी रचना..
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