२८ फरवरी—२०१५—
दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी
करीब-करीब एक माह होने को
है—मेरी पोस्ट को ब्लोग पर प्रकाशित होने के लिये.
क्या हुआ---कैसे
हुआ---क्यूं हुआ---सब कुछ यूं लग रहा है जैसे मैं-- मेरी संवेदनाएं किसी सुरंग के
स्याह अंधेरे में भटक रही थीं---या कि मुझे जरूरत थी उस अथाह में डुबकी लगाने
की---जहां मेरी सम्वेदनाएं शब्दों के मोतियों को तट पर ला सकें---मित्र—मैं कहीं
खो गयी थी---दुबारा अपने को पाने के लिये.
आपसे थोडा भी विछोह पीडा
देता ही है---और यह भी सत्य है---पीडा के बिना---नवनिर्माण भी तो असम्भव है---ये
संवेदनाएं भी एक कोख की तलाश में निरंतर हैं---ठीक हर उस आत्मा की तरह जो जन्म
लेने के लिये स्वम ही पीडा को पीती है.
और यह निरंतर है---शाश्वत
है---नैसर्गिक है---ईश्वरीय है.
दो हाथ फैले हुए---और मैं
बंधती चली गयी---
कई दशक पीछे देखना
होगा---सो कोशिश कर रही हूं---पीछे मुड कर देखने में गर्दन में कुछ पीडा होना
स्वाभाविक है---हर एक याद कुछ सुखद होती हैं---लेकिन पी्डाओं से ही वे जन्मती हैं.
यदि संवेदनाएं हैं तो
जीवन के अटूट सत्य अवश्यंभावी हैं---अब इसको हम निजत्व की परिधि में बांधे या कि
सत्य से रूबरू हों--- यह कहने वाले के ऊपर निर्भर है.
जीजी---उत्तर भारत में
बडी बहन को ऐसे ही सम्बोधित करते हैं—मेरे जीवन वह बिंदु थीं कि जहां—मां विलीन हो
गयीं---मेरे स्मृति-पटल पर मां ्की छवि में वे ही थीं—और जब सत्य से सामना हुआ तो
एक टूटन के साथ---एक पीडा का सैलाब—एक अस्वीकारीय मनःस्थित---स्वीकारना तो था ही---सो
स्वीकार ही लिया.
कभी-कभी ऐसा नहीं लगता है
कि—यदि पीडा ही मिले तो उस इंजेक्शन की तरह मिल जाय---जो बिना बताए हाथ में ठोक दिया
जाय---बता कर लगने पर---पीडा तो उतनी ही होती है लेकिन लगती ज्यादा है---अहा---
जीजी---ऐसे चली भी गयीं
कि—शिकायतों के अम्बार रह गये---वितषणाओं के गरम रेतों में एडियां ढसी रह
गयीं---और निरुत्तरित क्रोधों के गर्म टीले---और बीच में---मैं ढंसी सी—ढगी सी---पूछती
रही अपने-आप से---वो कौन थी---मां---बहन---या प्रतिस्फर्धी---या कि मेरा संबल???
कभी-कभी ऐसा भी होता
है---हम खुद ही नहीं समझ पाते हैं अपने-आप को.
कुछ ऐसा हुआ कि मिलना मैं
भी चाहती थी और पास आने के वजाय दूर चली गयी---
वे बुलाती रहीं---संदेशों
के द्वारा---पत्रों के मार्फत---और मैं सबको छिटकती---अपने अहम—में खोती चली
गयी---एक दिन वे नहीं रहीं---ये शब्द मेरे कानों में पिघले मोम की तरह गिर रहे
थे---मैं केवल चीख रही थी-----
वे चिट्ठियां अभी भी मेरे
साथ हैं---अधजली---और मैं उन्हें पूरी तरह जला नहीं पा रही हूं---शायद कभी भी जला
नहीं पाऊंगी---जब तक मैं हूं?
उस दिन वे दो हाथ फैले
हुए---उनकी बेटी के थे---जिनसे मेरा संपर्क सालों-साल नहीं रहा एक शहर में रहते
हुए भी---
और मैं उन बांहो में
सिमटती चली गयी---जैसे जीजी मुझे बांहों में भर कर कह रही हैं---
उमा---मुझे मांफ कर दो.
बहुत सुंदर और भावपूर्ण.
ReplyDeleteनई पोस्ट : अपनों से लड़ना पड़ा मुझे
श्री राम नवमी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-03-2015) को "प्रभू पंख दे देना सुन्दर" {चर्चा - 1932} पर भी होगी!
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जिंदगी में ऐसे पल आते हैं और तभी इन्सान को ऐसा एहसास भी हो पता है की जीवन क्या है ... क्यों एक अहम् को ले कर पूरा जीवन व्यर्थ हो गया ... बीता समय तो नहीं लौट पाता पर कई बार आगे का भी नहीं सोचा जाता ... वही अहम् दुबारा आगे आ जाता है ...
ReplyDeleteसबसे पहले राम नवमी की हार्दिक मगलकानाये
ReplyDeleteआदरणीय उर्मिला जी
जीवन क्या अगर ऐसे पल जिंदगी में आते हैं तभी इन्सान को ऐसा एहसास भी हो पता है जीवन का
भावपूर्ण
ReplyDeleteThanks to all my friends---for their words coted with insperation---always looking forward for the same.
ReplyDelete