Tuesday, 3 February 2015

यही धरा के रंग भी हैं.


ओक्टूबर २०१४,खटीमा उत्तराखंड---अंतराष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया.जहां भारत के गणमान्य साहित्यकारों से मिलने का वा उनके साहित्य से रूब-रू होने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ.इसके अलावा निकटवर्ती देशों के भी गणमान्य साहित्यकारों से मिलने का सुअवसर भी मिला.

यह मेरा सौभाग्य ही था कि मुझे माननीय श्री शास्त्री जी ने इस आयोजन मे सिरकत करने का अवसर प्रदान किया.मैं उनकी ह्रुदय से आभारी हूं कि उन्होंने मुझे उस मंच तक आसीन होने का अवसर प्रदान करवाया,शायद मैं इस योग्य भी नहीं थी.

साथ ही एक दिवसीय कार्यक्रम ब्लोगरस के लिये भी उनके अथक प्रयास से आयोजित हुआ.परिणामस्व्वरूप हम जैसे ब्लोगर्स को भी मौका मिला साहित्य की श्रेणी में अपनी जगह बनाने का.

पुनः मैं तहेदिल से शास्त्रीजी को सादर आभार व्यक्त करती हूं.

उसी मौके पर शास्त्रीजी ने स्वम रचित कुछ पुस्तकें भी मुझे दीं,पढने के लिये.

मेरी लापरवाही और कुछ व्यस्तता कि उन्हें पढने में कुछ देरी हुई.क्षमाप्रार्थी हूं.

आज मैं उनके द्वारा लिखित ’धरा के रंग’ पढ रही थी.

एक तुच्छ कोशिश कर रही हूं---कुछ कहने की उस पुस्तक के संदर्भ में.

यदि कुछ कम कह पाऊं तो य्ह मेरी दृष्टता होगी.

शुरू करती हूं ’वंदना’ से----

मैं हूं मूढ निष्ट अग्यानी

नहीं जानता पूजन-वंदना

शब्दों का संसार सजा कर

रचनाएं रचवाती हो.

परंपरा को निभाते हुए,सरल शब्दों में मां सरस्वती के प्रति उद्गारों के पुष्प अर्पित करते हुए लेखक अपने शब्दों के माध्यम से हृदय को पुष्प की नायीं महकाते चले गये हैं.

आइये एक-एक पांखुरी को सूंघते हैं---इस जीवन की बगिया की महकती वयार में से गुजरते हैं.

’आओ साथी प्यार करें---ठंडी-ठंडी हवा चल रही है,मौसम ने हमें बुलाया---बिना प्रेम सब जग सूना-सूना लगता है.

सारी कायनात ही प्यार की मुहताज है.भाग्यशाली हैं जो इसको पा लेते हैं.

सहजता से प्यार की बातें कह दीं.

’हो गया साफ अंबर’—चिलचिलाती धूप,उमस ने सुख-चैन छीना----ढल गया गर्मी का मौसम---फिर निकल आयेंगे मफलर स्वेटर.

जीवन कभी धूप कभी छांव का ही नाम है.

’चहकती भोर नहीं है’-आसमान में उडने का तो ओर नहीं छोर नहीं है,लेकिन हूं लाचार पास में,बची हुई अब डोर नहीं है---धूप-छांव की तरह ही मनःस्थिति हो जाती है कभी-कभी.

’दिवस सुहाने आने पर’---जो सुख-दुख के सहभागी हों मिलते हैं किसमत से.

सच कहा है---यहां बहुत कुछ तो अर्जित है---और बहुत कुछ किस्मत का लेना-देना भी चलता है.

जीवन के झ्र्रोंखों से झांकते हुए देश-प्रेम को की भी अपनी अहमियत है.देश खुशहाल है तो हम भी खुश हैं. देश को भी भूला नहीं जाना चाहिये.

अब देखिये----फिर याद आ गयी सावन की---बारिश की बौंछारें हों---झूलों की पेंगे---गरम-गरम पकोडे---वाह!

पक्षी उडता नील गगन में---ना चिट्ठी ना पाती----निराशा के बादल भी घिर आते है---

बहुत सुंदर---खोज रहा हूं मैं वो सागर,जहां प्रीत की भर लूं गागर----पंछी उडता नील गगन में----दूर गगन की छांव में---जीवन की रफ्तार भी जरूरी है.

,और फिर बढे चलो---बढे चलो----जिंदगी की राह में----.

’सितारे टूट गये हैं----कभी-कभी टूटे तारे भी शुभ संकेत भी लेकर आते हैं---निराशाओं के बादलों की बीच ही आशा की किरण फूटती है----उम्मीद कभी खत्म नहीं होती.

बहुत सुंदर पंक्तियां---क्यों नैन हुए हैं मौन,आया इनमे कौन?

मन के नाम पर---श्याम घटायें अक्सर ही छा जाती हैं----और स्वप्न सलोने---दवे पांव आ जाते हैं---आस-निरास भई---जीवन के तार कभी----सुर-संगीत में झंझकरित हो उठते हैं तो कभी विरह की लगन में मगन.

अरमानों की डोली जिस दरवाजे अभी-अभी उठी तो उसी दरवाजे से----?

श्वासों की सरगम की धारा यही कहानी कह्ती है---काल से चलती कल-कल करती गंगा मस्त-मस्त चलती है---जीवन की चाल यही है----ओ,राही चल –चला- चल---रुकना नहीं तेरी फितरत.

चलना ही जिंदगी है,रुकना मौत है.

जीवन हर-पल नव-निर्माण है पतझड आते हैं,फि नई कोंपले फूटने लगती हैं—तितलियो की रंगीनियत ,भंवरों की गुंजुन----यही सिलसिला चलता रहता है----

कभी बसंत ्मुस्कुराता है---कभी पतझड की वीरानियां मन को उदास करने लगती हैं---कभी नया साल का उजियारा---नयी दिशा प्रसस्त कर जाता है---जीवन में नई ऊर्जा फैलने लगती है---कभी बरखा  का आमंत्रण----कांटो-फूलों का साथ चिर है---जैसे सुख-दुख.

सत्य है---अंधेरा ना हो तो उजाला निर्थक है.

जीवन-- सुस्वागत में ही होना ही चाहिये.

स्वीकार्य-भाव जीवन का मूल-मंत्र है. भावों के सागर के तट से दूर जिंदगी के वास्तिवकता का भी अपना महत्व है.

शहरीकरण का अम्धाधुकरणीय विस्तार जीवन से क्या-क्या छीन रहा है----ध्यान देने की बात है---खेती के जमीने कम हो रही हैं—कम्करीट के जंगल खडे होते जा रहे हैं जनसंख्या अपने विस्फोट के आखिरी मुकाम पर खडी है---???

इस उआ-प्योह में कवि-हृदय आशा का दामन नहीं छोडना चाहता---ढूंढने निकला हूं---ईमान,इम्सानियत---वेदना की मेड पर---गीत गाना जानता हूं.विरह में भी गीत गाने की चाहत लिये---हर कदम आगे की ओर ही बढ रहा है---आशा की किरण फूटेगी ही----

निराशा के बादल छ्ट जाएंगे---हमें अपना हर कदम होशियारी से बढना चाहिये.

कवि-हृदय देश की दशा देख कर छु्ब्द हुए बिना रह सकता—देश बंट रहा धर्म के नाम पर.भाषा के नाम पर---और ना जाने क्या कारण हो साकते है?

हाथ जलने लगे---आचमन---कर-कर कर---ये ढोंग जीवन को दूषित करते रह्ते है.

’मेरा बचपन’---बचपन ता-उम्र साथ चलता है---यह सत्य है---बचपन को कभी भी मरने नहीं देना चाहिये---हर-रोज कम-से-कम एक बार बच्चा होना ही चाहिये---

’अमलतास’ के झूमर---गर्मियां आ रही है----ठंडी-ठंडी,दहकती झूमरें मुझे भी हमेशा मोहती हैं.

’बेटी की पुकार’---कवि हृदय इस पुकार को अनसुना नहीं कर सकता---बेटी ना होगी तो मनुष्य-संतति ठहर जायेगी.

बहुत सुंदर-सटीक पंक्तियां बन पडी हैं---मनुजता की चूनरी तार-तार हो रही---इस अंधी दौड में.

पुनःश्चय:

धरा के रंग---हरियाली से भरपूर---और बासंती बयार में झूमते अमलतासी झूमरें---कभी बादलों की दौद-भाग,कभी सूरज की किरणों का सतरंगी इम्द्रधनुष----तो कभी विरह की पीडा,तो कभी मीत-मिलन----जीवन एक खेल है--- धूप-छांव का.

यही धरा के रंग भी हैं.                               

 

 

 

 

 

9 comments:

  1. शास्त्री जी को ब्लॉग पर नियमित पड़ता हूँ .. उनकी लगन, निरंतरता और अनथक प्रयास का सदा कायल रहता हूँ ... इस पुस्तक के सुन्दर पलों को लिखा है आपने ... बधाई ...

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
    नई पोस्ट : ओऽम नमः सिद्धम

    ReplyDelete
  3. इस उआ-प्योह में कवि-हृदय आशा का दामन नहीं छोडना चाहता---ढूंढने निकला हूं---ईमान,इम्सानियत---वेदना की मेड पर---गीत गाना जानता हूं.

    .... बहुत अच्छा लिखा है सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. अरे वाह!! रुप चन्द्र शास्त्री जी के आमत्रण पर आप वहां हो आईं..विस्तार से लिखें अपने अनुभव!!

    ReplyDelete
  5. Goodday,Sameerjee,
    Hope u all r in good spirit.
    The days,the moments spent in the hearty and heavenly sea shore of Shree Shastreejee's Aathitya---could not be expressed---wld try to share if I could.
    goodwishes
    Man ke-Manke

    ReplyDelete