आइये जीवन की शुरूआत करें---नित-नये सूरज से.
परंपरागत शुभ-आरम्भ ईश-वंदना से ही होनी चाहिये सो लेखक-कवि
श्री शास्त्री जी इस परम्परा का निर्भाय बखूबी करते ही हैं---तुम बिन सूना मेरा आंगन,बाट
जोहता द्वार---मेरी वंदन स्वीकार करो—एक नम्र निवेदन---लेखन या कोई भी रचनात्मक
कार्य सरस्वती की कृपा के पूरा नहीं होता.
मेरी एक छोटी सी कोशिश—कि ’सुख का सूरज’ काव्य-संग्रह को
जिसे श्री शास्त्री जी ने अपनी बहुमुखी भावनाओं एंव वृहद संवेदनशीलता से सजाया
है---उसे-- विषय-अनुरूप बांध सकूं.
ऐसा करने में मेरी आंकाक्षा यह कतयी नहीं है कि उनकी इस
काव्य-प्रतिभा का आंकलन करूं वरन—उनके वृहद अनुभव व काव्य-प्रतिभा से कुछ सीख
सकूं---और लेखन के जगत में कुछ और बेहतर कर सकूं—उनके मार्गदर्शन का अनुसरण कर
सकूं.
सरस्वती वंदना के साथ-साथ जीवन के बेहतरीन मूल्यों को कवि
ने अपने काव्य-संग्रह में भर- पूर उकेरा है---हमें संस्कार प्यारे हैं---कहते हैं
संस्कार-विहीन मनुष्य पशुवत होता है.
सो—तुम अपने पास रखो यह नंगी सभ्यता—यह कह कर उन्होंने अपनी
संसकृति को सम्मानित किया है.
प्यार के बिना यह जीवन अधूरा ही रहता है—यह अटूट सत्य है.
प्यार एक ऐसा इंद्र धनुष—जिसकी सतरंगी छटा ना हो तो जीवन
रूपी-फूल कुम्हला जाय--.
ंमोक्ष साधने के लिये—सच्चा
प्रेमी वही जिसको लागी-लगन,प्रीति की पोथियों को बांचने के लिये---ढायी आखर ही
चाहिये---प्यार को सजाने के लिये ऊंचा चरित्र भी जरूरी है---प्यार एक धरोहर
है---जिसे सजाना भी जरूरी है और सभांलना भी---यह कांच का दर्पण है---???
सच्चा-सच्चा प्यार
कीजिये---सीमायें मत पार कीजिये---हर सम्बन्ध की एक मर्यादा होनी ही चाहिये---बम्धन
और मर्यादा में केवल एक सांस का अंतर हैं जिसे समझने के लिये संवेदन्शीलता ही सटीक
पैमाना है.
संबन्ध आज
सारे,व्यापार हो गये---अक्सर ऐसा ही हो रहा आज—तभी तो जीवन में इतना भटकाव है.
याद किसी की आती
है—्प्रेम-विछोभ एक ही फूल के दो रंग हैं
जहां प्रीति होती, वहां विछोभ की पी्डा भी होगी---तभी तो मीरा, मीरा हो सकीं
---राधा की एक परम्परा भी कायम हो सकी.
प्यार की बानगी
देखिये---अपना माना है जब तुमको----यदि साथ निभाओ तो,मैं अमृत भी पी सकता
हूं---साथ जो हो तेरा विष भी अमृत हो जाय---वाह!
जब साथ ना हो
तेरा---सब कुछ वीराना लगता है---अमृत-पान भी विष-पान हो जाता है.
एक ऐसा साथ जरूरी
है जीने के लिये---कि खुद का जीना हो जाय.
गीत गाते रहो,गुनगुनाते
रहो,एक दिन मीत संसार हो जायेगा---प्यार से छूलो तो कायनात भी हमारी हो जाती है.
जिंदगी के जख्म
सारे भर गये,प्यार करने का जमाना आ गया---हसरतें छूने लगी आकाश को,पत्थरों को गीत गाना
आ गया---खबसूरत भावों को खूबसूरत शब्दों में पिरोया गया है.
देश ना हो
तो---प्यार-व्यार की बातें निर्थक हो जाती हैं.
सो कवि-हृदय देश
के प्रति भी पूरी तरह सजग हैं---ऐसा देश चाहिये,जहां ग्यान की गंगा बहती हो,खेतों
में खुशहाली हो,मजदूर के हाथों में ताकत हो,घर-घर में खुशियों की दीपशिखाएं जलती
हों,इंसानियत की हवाएं बहती हों.
कौन राक्षस चाट
रहा---कभी-कभी देश में फैली अव्यवस्थाओं से भी कवि-हृदय द्रवित हो उठता है.
देश में व्याप्त
हिंसा के प्रति भी कवि जागरूक एंव चिंतित हैं.
देश में फैली
स्वार्थ की राजनीति के प्रति भी कवि का मन चिंतित है.
कभी-कभी कवि-हृदय
शंकालू भी हो जाता देश के हित के प्रति.
इतना सब होते हुए
भी कवि-हृदय ने आशा को नहीं त्यागा है---निराशाएं आती-जाती रहती हैं---विनाश के
साथ-साथ विकास का सूरज भी उदित होता ही है—सो प्रकृति की छांव तले उनका भावों का
संसार विश्रांति पाता है---बसंत का आगमन नव-जीवन का संदेश लेकर आ रहा है---मधुमास
आने को है—आशाओं के बीज फिर पल्लवित होगें ही---कुहरे के उस पार से सूरज निकलेगा
ही---प्रकृति का नियम यही है---दे रहा मधुमास दस्तक.
कभी-कभी उम्र के
पडाव भी भयभीत कर जाते हैं---स्वाभाविक है,परम्तु जीवन भी नित-नव-निर्माण का ही
नाम है---सो कवि-हृदय जीवन-रूपी नाव लिये---आशा-निराशाओं की लहरों पर—अपने भावों
की यात्रा करते आगे बहते चले जाते हैं---भावों की लय को शब्दों के तारों पर छेडते
हुए---नव-गीत गुनगुनाते हुए.
आइये हम भी उनके
साथ जीव-गीत गुनगुना लें
छोटे मुंह बडी
बात—मेरी यह कोशिश हो सकती है.क्षमा प्रार्थी हूं.
(प्रस्तुतीकरण—श्री
माननीय रूपचन्द्र शास्त्री ’मयंक’ के द्वारा रचित काव्य-संग्रह ’सुख का सूरज’ पर
आधारित है.)
बहुत सुंदर विश्लेषण.आ. शास्त्री जी की रचनाएं देश,समाज,माटी से जुड़ी हुई रहती हैं.प्रकृति के विविध रूपों का बहुत सुंदर वर्णन उनकी कविताओं में है.
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