बहती चली गयी, वक्त की धारा की धार में
वर्षों की मिठास-खटास-कडुवाहटों की लहरें
और स्मृतियों की तलहटी में पडे—
अपनत्व के पाषाड-सीपियां
परिछाइयां उन चेहरों की—
जिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं
ता-उम्र---भूलने के-- बहानों को साथ लिये.
पर---होता नहीं है,ऐसा कभी
काशः---ऐसा हो जाता ???
आइये कल हुई एक घटना के साथ शुरू करती हूं—जीवन का
फलसफा,जिंदगी की फिलोसफी और सिमटता हुआ आसमान,समाती हुई धरा---- मुटठी में---अपनी
सारी-समूची तस्वीर को लिये कि,यहां पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की और
अथाह – सागर मुहब्बतों के---जाने कहां
विलीन से हो जाते हैं कि वक्त की रेत फिसल गयी रेत सी—मुट्ठी से.
आगरा शहर—कल ताज-महोत्सव का आखिरी दिन और मैं अपनी दो
परिचिताओं के साथ कुछ सस्ता सा समेटने के लिये,धूल भरी वीथियों में,बे-फिक्र,
चहलकदमी करते हुए—खरीदना एक बहाना था---देखना एक शगूफा---और फैले हुए दो हाथ मेरी
ओर बढते चले आ रहे थे---मैं देखकर भी देख नहीं पा रही थी—और मैं उन हाथों में समा
गयी---तब देखा तो—उन हाथों के बीच कितनी यादों के सैलाब थे---जहां निरुत्तरित
थे---पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की—
अथाह सागर की हिलोरों में घुल रही थी अपने सारे नमक की साथ.
पुनःश्चय:
बहुत-बहुत कुछ ऐसा होता है—हर जीवन में---शब्तातीत सा---इन
शब्दों में भी बहुत कुछ कह दिया गया है---इससे अधिक शब्द नहीं हैं—मेरे पास
जिन्हें लिख सकूं---हां संवेदनाएं हैं जो बह सकती हैं---!!!
आइये कुछ खूबसूरती से रू-बरू हों—जीवन को देखें स्वम के
दर्पण को पोंछ कर.
प्रेम—
फ्योदोर
दोस्तोवस्की का एक पात्र कहीं कहता है: “ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि
मनुष्यता के प्रति मेरा प्रेम रोज बढता जाता है,लेकिन जिन मनुष्यों के साथ मैं
रहता हूं उनके प्रति वह दिन-प्रति-दिन कम होता जाता है’. आह.
-----मनुषयता के प्रेम के नाम पर मनुष्यों की हत्या अतयंत
निर्दोष मन से जो की जा सकती
है----मित्रों,मैं मनुष्यता से प्रेम करने जैसी थोथी और पोच और हवाई बातें आपसे
नहीं करना चाहता हूं.
यदि मैं अकेला
प्रेम-पूर्ण ना हो सकूं,यदि मैं उसी एक व्यक्ति के साथ प्रेम-पूर्ण हो सकूं जिसे
प्रेम करता हूं,तो मैं अभी परिपक्व नहीं हुआ.तब प्रेम-पूर्ण होने के लिये मैं किसी
पर आश्रित हूं. (सुंदर-अदभुत-अतुलनीय )
मौन-दर्पण-मैं और तुम----
तुम
तो वह हो जो इन सबका साक्षी है----चाहे वह शून्य हो,कि आनंद हो,कि मौन हो----कुछ
नहीं बचता—ना शून्य,कि ना आनंद,कि ना मौन.
दर्पण---रिक्त हो गया.
अनुग्रह---
क्यों?
क्योंकि हो तब तो अनुग्रह समझ में आता है कि मुझे कुछ हुआ है,तो मैं धन्यवाद
दूं----अन्यथा वह भी अहंकार है.
यात्रा-आनंद----
यात्रा का
आनंद लो और मार्ग में वृक्षों,पर्वतों,सरिताओं,सूर्य,चांद और तारों के जो दृश्य
आएं उनका भी आनंद लो----जब दृष्टा ही दृश्य बन जाता है,जब ग्याता ही ग्यात हो जाता
है----तो घर पहुंचा.
साधक-मंदिर-भगवान----
साहसी
साधक को सभी अनुभव पीछे छोड देने होंगे,----और वह अपने ही एकाकीपन में बच जाता
है---तो कोई आनंद इससे बडा नहीं है—कोई सत्य इससे सत्यतर नहीं है---तुम उसमें
प्रवेश कर गये-----तुम एक भगवान हो गये.
(साभार संकलित ध्यानयोग से---ओशो )
विविध आयाम लिए इस पोस्ट में अनेक रंग मिल गए जीवन के ...
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-03-2015) को "बदलनी होगी सोच..." (चर्चा अंक-1905) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जीवन के विविध रंग साथ चलते हैं.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचनाएं प्रस्तुत की हैं आपने।
ReplyDeleteपरिछाइयां उन चेहरों की—
ReplyDeleteजिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं
प्रभावशाली प्रस्तुति,आपका हार्दिक धन्यवाद।