Saturday, 28 February 2015

दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी


बहती चली गयी, वक्त की धारा की धार में

वर्षों की मिठास-खटास-कडुवाहटों की लहरें

और स्मृतियों की तलहटी में पडे—

अपनत्व के पाषाड-सीपियां

परिछाइयां उन चेहरों की—

जिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं

ता-उम्र---भूलने के-- बहानों को साथ लिये.

पर---होता नहीं है,ऐसा कभी

काशः---ऐसा हो जाता ???

आइये कल हुई एक घटना के साथ शुरू करती हूं—जीवन का फलसफा,जिंदगी की फिलोसफी और सिमटता हुआ आसमान,समाती हुई धरा---- मुटठी में---अपनी सारी-समूची तस्वीर को लिये कि,यहां पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की और अथाह – सागर  मुहब्बतों के---जाने कहां विलीन से हो जाते हैं कि वक्त की रेत फिसल गयी रेत सी—मुट्ठी से.

आगरा शहर—कल ताज-महोत्सव का आखिरी दिन और मैं अपनी दो परिचिताओं के साथ कुछ सस्ता सा समेटने के लिये,धूल भरी वीथियों में,बे-फिक्र, चहलकदमी करते हुए—खरीदना एक बहाना था---देखना एक शगूफा---और फैले हुए दो हाथ मेरी ओर बढते चले आ रहे थे---मैं देखकर भी देख नहीं पा रही थी—और मैं उन हाथों में समा गयी---तब देखा तो—उन हाथों के बीच कितनी यादों के सैलाब थे---जहां निरुत्तरित थे---पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की—

अथाह सागर की हिलोरों में घुल रही थी अपने सारे नमक की साथ.

पुनःश्चय:

बहुत-बहुत कुछ ऐसा होता है—हर जीवन में---शब्तातीत सा---इन शब्दों में भी बहुत कुछ कह दिया गया है---इससे अधिक शब्द नहीं हैं—मेरे पास जिन्हें लिख सकूं---हां संवेदनाएं हैं जो बह सकती हैं---!!!

आइये कुछ खूबसूरती से रू-बरू हों—जीवन को देखें स्वम के दर्पण को पोंछ कर.

प्रेम—

    फ्योदोर दोस्तोवस्की का एक पात्र कहीं कहता है: “ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मनुष्यता के प्रति मेरा प्रेम रोज बढता जाता है,लेकिन जिन मनुष्यों के साथ मैं रहता हूं उनके प्रति वह दिन-प्रति-दिन कम होता जाता है’. आह.

-----मनुषयता के प्रेम के नाम पर मनुष्यों की हत्या अतयंत निर्दोष  मन से जो की जा सकती है----मित्रों,मैं मनुष्यता से प्रेम करने जैसी थोथी और पोच और हवाई बातें आपसे नहीं करना चाहता हूं.

    यदि मैं अकेला प्रेम-पूर्ण ना हो सकूं,यदि मैं उसी एक व्यक्ति के साथ प्रेम-पूर्ण हो सकूं जिसे प्रेम करता हूं,तो मैं अभी परिपक्व नहीं हुआ.तब प्रेम-पूर्ण होने के लिये मैं किसी पर आश्रित हूं. (सुंदर-अदभुत-अतुलनीय )

मौन-दर्पण-मैं और तुम----

               तुम तो वह हो जो इन सबका साक्षी है----चाहे वह शून्य हो,कि आनंद हो,कि मौन हो----कुछ नहीं बचता—ना शून्य,कि ना आनंद,कि ना मौन.

दर्पण---रिक्त हो गया.

अनुग्रह---

             क्यों? क्योंकि हो तब तो अनुग्रह समझ में आता है कि मुझे कुछ हुआ है,तो मैं धन्यवाद दूं----अन्यथा वह भी अहंकार है.

यात्रा-आनंद----

              

        यात्रा का आनंद लो और मार्ग में वृक्षों,पर्वतों,सरिताओं,सूर्य,चांद और तारों के जो दृश्य आएं उनका भी आनंद लो----जब दृष्टा ही दृश्य बन जाता है,जब ग्याता ही ग्यात हो जाता है----तो घर पहुंचा.

साधक-मंदिर-भगवान----

          साहसी साधक को सभी अनुभव पीछे छोड देने होंगे,----और वह अपने ही एकाकीपन में बच जाता है---तो कोई आनंद इससे बडा नहीं है—कोई सत्य इससे सत्यतर नहीं है---तुम उसमें प्रवेश कर गये-----तुम एक भगवान हो गये.

(साभार संकलित ध्यानयोग से---ओशो )

       

5 comments:

  1. विविध आयाम लिए इस पोस्ट में अनेक रंग मिल गए जीवन के ...

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  2. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-03-2015) को "बदलनी होगी सोच..." (चर्चा अंक-1905) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. जीवन के विविध रंग साथ चलते हैं.

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  4. बहुत ही सुंदर रचनाएं प्रस्‍तुत की हैं आपने।

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  5. परिछाइयां उन चेहरों की—

    जिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं


    प्रभावशाली प्रस्तुति,आपका हार्दिक धन्यवाद।

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