Thursday, 5 February 2015

नव-निर्माण अब होने को है.


पथ के शूल-फूल               

मौसम बदल रहा है---गर्मी की तपस धीरे-धीरे शांत होने लगी है,जैसे तपती आंच---ताप से ठंडी पडने  लगती है---हर दिन---दिन चढता है और शाम की चादर ओढ कभी तारों की छांव तले तो कभी यूं ही कालिमा लपेटे अपनी बांहों पर सिर टिका लेता है---कोई हल-चल नहीं कोई करवट नहीं---और कब आंखे खोल---हवाओं की अंगडाई ले उठ चल देता है---बीता दिन कांधों पर से उतार कर---वही नारंगियत,वही कलरव,वही जीवन, नव-जीवन---पुराना शब्दकोष कहीं खो सा गया है---

होली गयी,दीवाली आगयी---दीवाली आ गयी,होली गयी जैसे कोई गज़ल हो----और वो गुनगुना रहा है---

बस,अभी-अभी कागजों को समेट रही थी---कुछ कतरनों को तरीके से लगाने की कोशिश में—

कुछ कांटे,कुछ फूल हाथ लग गये---सोचा कि,डस्ट्बिन में फेंक दूं?

कभी-कभी कचरे में बहुत ही सुंदर चीजें मिल जाती हैं और दुबारा घर में लौट आती हैं.

इतना ही नहीं पहले से अधिक खूबसूरत भी हो जाती हैं.

कभी हम भी अपने को शीशे में निहारते हैं तो---लगता है—कुछ बदला-बदला सा है,कुछ खूबसूरत हो रहा है.

जिंदगी---खूबसूरती के अलावा कुछ भी नहीं है.

बद्सूरती—मौत है.

इसी संदर्भ में---

शायद---जीवन में होने वाली हर स्थिति की तरह मौन और संवाद की सीमा भी जरूरी है.

जिंदगी बर्फ़ नहीं होती कि पिघली और खत्म,खुद ही बाहर आना होता है.

याद आ रहीं हैं बेहद खूबसूरत लाइनें---बेहद खूबसूरत गज़ल और बेहद खूबसूरत आवाज में—

जगजीत सिंह साहिब ने गज़ल को नहीं गाया है---जिंदगी को गाया है---

ये दु्निया---मिल जाय तो,मिट्टी है

खो जाय तो सोना है???

गर्मी के दिन आ गये हैं----होली गुजरते-गुजरते सृष्टि कृति में रमने लगती है.

पतझड की ओट में---कल विदा होने लगते हैं---धीरे-धीरे.

कुछ हवा के झोंकों में इधर-उधर चले जाते हैं.

कुछ  स्वीकार-भाव में समर्पित हो,धरा की गोद में सिमट जाते हैं---जहां से वे विदा हुए थे वहां से सृजन की कोपलें फूटने लगती हैं.

धीरे-धीरे,सुबह हर दिन एक नये सूरज के साथ इंद्रधनुषी स्नान में लीन हो जाती है और बारिशों की फुहारें रिक्त को सिक्त कर हवा में झूमने लगती हैं---यहां भी कोई चुन्नी की ओट में मुस्कुराहटें भीगने लगती हैं---कहीं राहों के बेजुबान गढ्ढे लबालब हो राह चलते को बे-राह करने लगते हैं---कहीं नाले-नलियां राह ही रोक देती हैं—कहीं छातों से धूले झडने लगती हैं---तो कहीं कागज की नावें----अब नहीं दिखते ये नजारे,जब मास्टरजी की हिदायतें नावों में रख---पनारों में बह जाती थीं---कोई फिक्र नहीं---किसी खास मुकाम की चाहत भी नहीं---बस अगली साल नया बस्ता और नई किताबों पर नाम और नई कक्षा की लिखावट ही खाफी थी.

यूं भी अब कोई-कहां पहुंचता है?

हां,बरसाती छते अब कहां---जो हर-बरस टपकती थी---हर-बरस मरम्मत के बावजूद.

चुल्हों की आग---नहीं---आंच(खुद कह कर सुनिये---दोनों शब्दों के कहने में फर्क है---जैसे मां का थप्पड या मां का प्यार.शब्दों की ध्वनियां अपने अर्थों को बोलती हैं.)

किसानों की आस तो कभी बे-आस.

चलिये धीरे-धीरे मौसम भी सरक जाता है---और---हर दिन कभी कोई जयंतियां कभी कोई पुन्यतिथी---और मेरे घर के पिछवाडे स्कूल की खिडकियों से झांकती मासूम,शरारती---उम्र पहले प्रोढ हुई आंखों में व अक्सर क्लासों मे गैहाजिर शिक्षकों के कारण---विक्षिप्तीय आवाजों से जान लेती हूं---कि—

और---दशहरा-दीवाली आते तो हैं---लेकिन कागजी महक लिये---पैसों की आग की जलन के साथ---एक होढ लिये---पैसों को फूंकने की.

खैर वख्त बदलता ही है.

वख्त वही है---हम और हमारी फितरत बदलती है---क्या किया जा सकता है???

कभी जगजीत सिंह जी को गुनगुना कर देखिये---

ये दुनिया क्या है—

मिल जाय तो मिट्टी है

खो जाय तो सोना है.

(क्षमा करें यदि गजल के बोल बे-डोल हो गये हों)

कल ही अपनी एक मित्र या यूं कहें कि---क्या कहें?

कुछ रिश्ते इतने उनकहे-अनछुए होते हैं कि उन्हें नाम नहीं दिया जा सकता----हां औपचारिक नामों से आवश्य पहचाना जा सकता है---के यहां ठहरी हुई थी---दिन अब मां की गोद की नाईं भरकने लगे हैं---अलसाई से,खुशनुमा भी---सुबह की खुशनुमा गरम-गरम भपयाती चाय और अमरूद के पेड की कच्चे अमरूदों वाली सुबह-सुबह की बयार---

स्वर्ग किसे कहें---नर्क की जमीन कैसी होती है----मेरे ख्याल से जानने की जरूरत नहीं है--- क्योंकि विडंबना यही है कि वहां जीते-जी जाया नहीं जा सकता और क्या गारंटी है कि हम वहां पहुंचंते भी हैं???

सो, मेरा स्वर्ग मेरे साथ ही रहता है—मेरे पर्स की किसी एक जेब में----जब चाहा निकाल लिया और सूंघ लिया और वापस पर्स की जेब में सहेज कर रख लिया.

बिखरे हैं स्वर्ग---चारों तरफ----इसी सिलसिले में कुछ पंक्तियां पेश हैं,मुलाहिज़ा फरमाइये---

                   नव-बसंत आने को है---

(जो) अभी-अभी विदा हुए कोहरे

कोहरों के हिमपात बने

(सब) राहों के छोर बने

सरसों के खेत---

नव-बसंत आने को है

(जो) भीगे पंख लिये

कतारें विहगों की

ओढे चादर ’अनिश्चताओं’ की

बिजली के घाती-तारों पर

उतर आईं हैं—नीचे

नव-बसंत आने को है

(जो) सूरज रूठे से आते थे

ड्यो्ढी पर कम ही लाते थे

सौगातें जीवन की,पर

(जो) कंबल, प्रेमी थे रातों के

अब चुभते-चुभते से लगते हैं

अब मटमैले से हुए—

शाल-दुशाले भी

नव-बसंत आने को है

गोदी से चिपकी---

नवजात लहू की धारें भी

हो रहीं अन-मनी

व्याकुल हैं दूर छिटकने को

नव-बसंत आने को है

धीरे-धीरे कोंपलें फूटेंगी

डाली भी फिर—

झूमरों सी झूमेंगी

परवाजें भी-----

बिजली के तारों को छोड   

परवाजी हो जाएंगी

नव-बसंत आने को है

पेडों की खो में दुबकी

चंचला, धारी वाली

निकल आईं हैं बाहर

नन्हें हाथों को जोड

करने सूर्य-नमस्कार

नव-बसंत आने को है

तोते भी और हरे हो गये

मधुर हो गई गुटरगूं

मधुर हो गई

तैयारी पूरी-पूरी है

नव-जीवन की पहल हो रही

डालियां भी रीत रहीं

नये पात के स्वागत में

वीत-राग अब थमने को है

नव-बसंत अब आने को है

नव-निर्माण अब होने को है.

 

 

                                          

 


9 comments:

  1. हर नयी सुबह साथ लाती है नयी उम्मीदें, जो खिलता-मुस्कराता रहे, वही वसंत है। प्रकृति के नए श्रृंगार के साथ ही वासंती बयार भी बहने लगी है। हम प्रकृति के प्रति पल परिवर्तित रूप से सीख़ लें और मिलकर वसंत का स्वागत करें।

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  2. सरकते सरकते सब कुछ सरक जाता है .. जीवन भी ... पर आनद है जो ऊर्जा की तरह रहता है .,... यादें हैं जो रहती हैं ऊर्जा की तरह जीवन में ... यही तो सत्य है, शिव है और सुन्दर भी है ... शाश्वत भी है ...

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  3. दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है...
    मिल जाए तो मिटटी है जाये तो सोना है...बहुत खूब...

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  4. बेहद अर्थपूर्णं शब्‍दों से पिरोई गई रचना।

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  5. आह!! बहुत गहरे!! रा स्वर्ग मेरे साथ ही रहता है—मेरे पर्स की किसी एक जेब में--


    कुछ मेरा कहा:

    थका थका सा ये मौसम, गुजर जाने को है अभी
    ढली ढली सी है अब शब, सहर होने को है अभी..
    धमक उठी है दूर तलक और वक्त यही कहता है
    तू न आये तो न आये, याद तेरी आने को है अभी.
    -समीर लाल ’समीर’

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  6. सभी सह-ब्लोगर एंव ’मन के मनके’ की धारा को धन्य करने वाले सभी
    महानुभावों को मेरा सादर आभार.
    समीर जी.नमस्कार,
    बहुत दिन हुए---आपके शब्दों की अंजुलि भरे हुए.
    आशा है आप सपरिवार स्वस्थ एंव प्रसन्नचित होंगे.
    वाह,वाह!!! के अलावा और कुछ कहने में असमर्थ हूं—
    क्योंकि जिस हाथ को थाम राह चली उसके तो पीछे-पीछे ही चलना होगा.
    मैं---गुमनाम थी—नाम दिया आप सब ने
    मैं तो अपहचान थी—पहचाना भी---आप सब ने.
    पुनः आभार.

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