कुछ
तो हो गया है---
मेरे चूल्हों को इंतजार रहता है
तुम्हारे आने के संदेशों का---
बे-शक,अक्सर वे ठंडे पडे रहते हैं
कभी-कभी ही दा्लें उफनती हैं,और
चार रोटियां सिंक जातीं हैं,और
फ़र्ज अदायगी कर लेती हूं---
कुछ कुर्सियां,एक कुर्सी को छोड कर
मुझसे पूछती पूछती हैं---
कोई और नहीं आ रहा—?
मैं,मुस्कुरा कर पूछती हूं-क्या तुम्हें पता
नहीं
और,वे भी चुपचाप सरक जातीं हैं
मेज के नीचे----
आज भी,मेरी रोटियां भर-पूर फूलती हैं
आलू के
पराठे,लबालब,सुधिंयाते हैं
आज भी,दालों के छौंकों की खुशबू
पडोस तक चली जाती तो है
आज भी तुम्हारी फरमाइशों के
इतवार
हर माह,चार बार गुजर जाते हैं(कभी-कभी पांच बार)
पता
नहीं,क्या हुआ उन खुशबुओं का
उन
महकती हुई खीरों का---
चटपटाते,दही-बडों का
असली घी में,भुनी सूजियों का
क्यों,तुम्हारी यादों की रसोइयों से
बिना बताए चले गये हैं, वो
मुझसे भी कुछ नहीं कहा,और
तुमसे भी नहीं---!!!
वरना,ऐसा नहीं था,वे यादें,तुम्हें
यहां तक लाती जरूर,और
मेरे चूल्हे की आंच,फिर से
सुलग जाती
गोल रोटियां फूल जातीं,गुब्बारों की तरह
दालों की छोंकों से------
गीली हो जातीं ,आंखें तुम्हारी
कुछ तो---हो गया है---?
संदर्भ में—हमें
अपनों से जोडने के लिये,जहां स्पर्श,शब्द,आंखो की भाषा जरूरी है,वहां,कुछ खुशबुएं
भी अहम होती हैं.बच्चे के लिये मां के शरीर की गंध,एक ऐसा अहसास है,कि जीवन-पर्यंत
स्मृतियों में जीवंत रहता है.कोशिश करिये,
अनुभूति अवश्य होगी,लगता है हम जैसे भूल गये
हों ,परंतु ऐसा नहीं होता,हां कुछ आग्रह-पूर्वाग्रह की वजह से हम स्वीकार न कर
पाएं,यह और बात है.
मुझे आज भी एक महक महका जाती है—हमारी मां की
असमायिक मृत्यु के बाद हमारे मामा-मामी हमारे साथ रहते थे.
मामी
के हाथ की छिलके वाली मूंग की दाल में लोंग का छौंक आज भी मुझे याद है,और यह खुशबू
मुझे उनसे जोडे रखती है,जब-जब छिलके वाली मूंग की दाल बनाती हूं.मामी का
चेहरा-आवाज,साफ नजर आने लगती है.
ये अनुभूतियां सभी के पास होती हैं,ऐसा मेरा
मानना है,और जीवन की आपा-धापी में वे कहीं दब जातीं हैं.जीवन की यह आपा-धापी कभी
कम ना थी,शक्लें बदल गईं है,परंतु,दुर्भाग्यवश,हम वह हुनर भी भूल गये हैं,जिनसे हम
इन बेशकीमती अनुभूतियों को,बडी सहजता से सींचते रहते थे,और कभी अकेले नहीं होते
थे.आज परिस्थियां उलट गयीं हैं”आज’ हाबी हो गया है,’कल’ का इंतजार है,
लेकिन वह ’कल’ जो इन ’आज’-’कल’ का आधार था
कहीं गुम हो गया है.
वो मामियां,वो फूफियां,वो चाचियां,ताइयां और
अम्माजी आज भी हमारे आस-पास हैं---अपनी बनी दालों की छोंको में.
पुनःश्चय--क्षमा करें यदि इस पोस्ट की पुनरावर्ती हो गयी हो---मन ने चाहा सो?
वो मामियां,वो फूफियां,वो चाचियां,ताइयां और अम्माजी आज भी हमारे आस-पास हैं---अपनी बनी दालों की छोंको में.
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट बढ़िया विश्लेषण।
बढ़िया मनके , आ. धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
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आज भी,मेरी रोटियां भर-पूर फूलती हैं
ReplyDeleteआलू के पराठे,लबालब,सुधिंयाते हैं
आज भी,दालों के छौंकों की खुशबू
पडोस तक चली जाती तो है
आज भी तुम्हारी फरमाइशों के इतवार
हर माह,चार बार गुजर जाते हैं(कभी-कभी पांच बार)
बहुत सुंदर.
नई पोस्ट : कि मैं झूठ बोलिया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-08-2014) को "गणपति वन्दन" (चर्चा मंच 1721) पर भी होगी।
--
श्रीगणेश चतुर्थी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह.... अपनी सी लगी अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteबहुत सुंदर, मन को छू जाते भाव… जीवन की इस आपाधापी ने हमें रिश्तों से दूर कर दिया है। हम रिश्तों की अहमियत को भूलते जा रहे हैं।
ReplyDeleteThanks a lot.Be on Man ke-Manke---will try my best to express the feels of being and nurture the soul.
ReplyDeleteशुक्रिया तहे दिल से आपकी टिप्पणियों का प्रस्तुत पोस्ट बेहतरीन है ।
ReplyDeleteकोई न कोई पल, कोई खुशबू, कोई बात, कोई आवाज़ कुछ भी कहीं भी किसी न किसी से जुडी बात जरूर होती है जो अनायास ही उसकी याद ताज़ा करा देती है ... और तब मन लौट जाता है स्मृतियों में ... इस पोस्ट ने भी यही किया ... :)
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