बात---
मेरे जाने की
ना कर
मेरे दोस्त---
मेरे हमसफ़र—
अभी तो---
पत्तियों पर नाम
मेरे
मैने----
उकेरे ही नहीं
दूर फैली---
वादियों पर---
निशां कदमों के
मेरे
छपे ही नहीं
फूलों की---
अधखुली पांखुरिंयों पर
उंगलियों
से----
दसखत—
हुये ही नहीं--
एक कप गर्म चाय
केतली से---
उडेली ही नहीं
बलकनी में---
कुर्सी----
अभी बिछी ही नहीं
सूरज ने---
आहटें----
दे दी हैं
आने की—
मगर----
दरवाजे की---
घंटी---
बजी ही नहीं
चाय की केटली
को---
टीकोजी से---
ढांके---
बैठी तो हूं
परवाजों की टोली—
गुजरी यहां से---तो
कुछ बातें होगीं—
मनुहारों से---
दानों पर—
दाना-पानी भी-- होगी
बस---
आता ही होगा
दोस्त मेरा---
टीकोजी से ढकी—
केटली अभी
गरम है—
मेज पर---
दो प्यालों में
छा गयी हैं
उसकी नारंगियत---
मेरे दोस्त की
टीकोजी से ढकी
केटली अभी भी
गरम है---
प्यालों में चाय—
भपिया रही है—
एक प्याली---
मेरे होठों को
चटका रही है
एक प्याला---
चाय---
मेरा दोस्त
सिपसिपा रहा है
मैं---
समेट कर---
खुद को
जिंदगी में
आ रही हूं
और---
मेरा दोस्त—
मेरी छत पर
चढ गया है.
बात---
मेरे जाने की
ना कर
मेरे
दोस्त---
आज मिलना हुआ एक युवा कपल(पति-पत्नी) से.
समाज के संभ्रत-वर्ग से हैं. उनके घर जाना हुआ,खाने पर कई
विषयों पर हलकी-फुलकी बातॊ के बीच अध्यात्म पर चर्चा पहुंच गई.
अध्यात्म---हम जीवन के मकसद ढूंढने लगते हैं—कहां पहुंचना
है—क्या ओबजेक्टिव हैं----सब कुछ पा जाने के बाद सब कुछ निर्थक हो जाता है?
कैसी विडंबना---जब नहीं होता—तो भी खोज जारी है—जब सब कुछ आ
जाता है—फिर खोज जारी??
आज का समाज—भ्रमित-भटका-लुटा सा क्यों है???
जीवन—बहुत बडा रहस्य और एक पुछी हुई स्लेट दौनों ही है.
आपकी अपनी सोच ---हमारी स्वम-गढित परिकल्पना---इसके
अतिरिक्त और क्या हो सकती है---?
मैंने इसी उधेड-बुन में कुछ लिखने की कोशिश की है---बहुत
थकी सी भी हूं—सोचा सोने से पहले इसको पोस्ट कर दूं---सुबह यदि मन हुआ—यदि और
जरूरी काम ना तो---आपके विचारों को पढ लूंगी---शायद कोई अंतिम खोज मिल जाय.
शुभरात्रि.
आभार
ReplyDeleteमेरी धरोहर में पधारने के लिये
पहली बार मन के मनके देखी
और भी देखने का तमन्ना है
ब्लाग लिंक लिये जा रही हूँ
सादर
जिसको हम जाना कहते हैं क्या सच में वो जाना होता भी है या कुछ और ... बीती जिंदगी का याद न रहना जाना तो नहीं कहा जा सकता ... पर फिर क्या है जीवन ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-08-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1698 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
रोचक शैली में रची हुई सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति...
ReplyDeletebahut khoob prastuti...
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