एक छोटी निजी यात्रा पर---कुछ
दिनों के लिये जाना हुआ---
अपने,व्यक्तिगत जीवन-लय की चुप्पी को तोडने का एक
प्रयास---साथ ही,जीवन की लयबद्धता को अनगिनत आयामों से झांकने की एक कोशिश----ये
रिश्ते क्या कहते हैं?
हर रिश्ते का आधार-भूत रिश्ता,दो इंसानी रिश्तों पर
कायम,जिसे समाज के द्वारा मान्यता दी गई होती है---विभिन्न समाजिक परिवेशों में,ये
मान्यताएं,परिस्थितिजन्य विभिन्नताओं को लिए होती हैं.
यहां,किसी का नाम व पहचान के बगैर,उस रिश्ते की परिभाषा, ना
कि,मर्यादा को टटोलने का प्रयास भर करने का ही मेरा आशय है,क्योंकि किसी की निजता
को छेडने का,अधिकार किसी को भी नहीं है.
दो व्यक्ति,इस आस्तित्व के दो बिंदु,अपनी जिंदगी शुरू करते
हैं,एक छत के साये में,दिन-रात गुजारते हैं,हर स्तर
पर,मानसिक,आर्थिक,शारीरिक---परंतु,आत्मिक कतई नहीं,किसी भी कारण से नहीं---अपवाद
यहां भी हैं.
जीवन ,सुबह-शाम की परिधि में घूमता रहता है,परिवार भी पनपने
लगते हैं,एक-दूसरे के प्रति,उत्तरदायित्व को भी एक सीमा में बांध दिया जाता
है----आर्थिक लेन-देन का भी बाजारीकरण होने लगता है---इनवेस्टमेन्ट,भविष्य की
सुरक्षा----आने वाली पीढियों के लिये,कुछ उत्तरदायित्व निभाने की फेरिश्त
आदि-आदि,सब कुछ सुचारू-रूप से चलने लगता है,ऐसा लगता जरूर है—डोक्यूमेन्टेनशन,फिक्स
डिपोजिट्स,प्रोपर्टीज---निःसंदेह कुछ गोल्ड भी,परिवार की धरोहर के रूप में,कुछ
लोकरों में सीलबंद हो जाते हैं,हस्तांतरित होने के लिये.
पर----वो कहां है---जिस पर पूरी कायनात टिकी हुई है???
एक निश्छल प्यार,बिना किसी सौदे बाजी के---हर आती-जाती सांस
के साथ,बढता जाय,पनपता जाए---भविष्य को सुरक्षित करने की आवश्यकता क्या--जब आज
इतना सुरक्षित और खूबसूरत हो---कल के स्वर्ग की प्रतीक्षा कौन करे---इसी पल की
मिट्टी में,भविष्य-बीज निहित हैं.
हम में से,करीब-करीब सभी,इसी बोझ को कांधों पर ढोये जा रहे
हैं----अपवाद यहां भी हैं.
आज का जीवन,हिसाबी-किताबी,एक रुटीन का हिस्सा है,जहां सपनों
में कोई और प्रतीक्षा जोह रहा है,एक ऐसे राज के साथ,जो उम्र भर खुलते नहीं हैं,और
साथ चले जाते हैं.
बहुतॊं से मै्ने सुना है(निःसंदेह कुछ निजी वार्तालापों
में)’कुछ राज,मेरी जिंदगी के, मेरे साथ ही जाएंगे’.
एक प्रश्न---वो राज, जीवन की खूबसूरती क्यों नहीं बन पाते?
वो राज,गुलाब की पांखों की तरह,जीवन को क्यों नहीं महका
पाते?
वो राज,आने वाली पीढियों के जींस में प्यार का बीज लेकर
क्यों नहीं जन्म ले पाते?
बहुत-बहुत प्रश्न हैं----अपवाद यहां भी हैं.
कहानी नंबर एक---
सोचा,क्यों ना अपने से शुरू करूं—सो,कुछ लिखना शुरू कर रही
हूं.
जीवन के पडाव, साल-दर-साल गुजरते जाते हैं.वैसे तो समय की कोई
सीमा नहीं है,एक धारा है निरंतर,वहां ना कोई गंगोत्री है,और ना ही कोई
महासागर,विलीन होने के लिये.
हमने, समय को सीमा में बांधा है,अपनी सुविधा के लिये या यूं
भी कह सकते हैं हम-- जीवन-मृत्यु सीमा में बंधे नजर आते हैं,जबकि ऐसा भी नहीं
है,यह यात्रा भी निरंतर है,बिना किसी आरंभ-अंत के.
हो सकता है,मेरा नजरिया दार्शनिक लगे परंतु, जब जीवन को
समभाव में जीने लगते हैं तब वहां सीमाएं विलीन होने लगती हैं,समस्त आस्तिव एक निरंतर
धारा की नाईं नजर आने लगता है.पीछे मुड-मुड कर देखिये,आभास सा होता है,हम तो वहीं
हैं, जहां दस वर्ष पहले थे.
सो, यही मानवीय प्रकृति-प्रवृति है,क्योंकि उसके पास
विचारीय-शक्ति है, जो गढने-रचने में माहिर होती है,वरना मनुष्य के आस्तित्व के
अलावा,आस्तित्व में प्रत्येक आयाम सीमा-विहीन है---सो प्रकृति के साथ,एक-रस हो कर
जीता है,मरता है—पुनः,पुनः—ना कोई सुख-दुख,ना कोई सुबह-शाम.
फूल खिलते हैं,मुरझाते हैं ,इस खिलने-मुरझाने में भी
लयबद्धता है,जहां कोई रुकावट नजर नहीं आती.
और,यही कारण है,प्रकृति में केवल मनुष्य ही है,जो
सुख-दुख,जन्म-म्रुत्यु की अवधारणा में खुद को जकडे हुए है,और खुद की बनाई कैद में
जिये चला जाता है.
वस्तुतः, जहां ना कोई जन्म-दिन है,ना कोई हेप्पी-बर्थ-डे
है,ना कोई मातम-पुरसी है---और जीवन-धारा
निर्बद्ध है---एक धारा-- अनंत-यात्रा.
प्रस्तावना कुछ बडी हो गई,क्षमा करें.
१९ मई को मेरा जन्म दिन था,कह नहीं सकती,कोई प्रमाणिकता भी
नहीं है,मैंने अपने बडों से जाना,हां, पंडित के द्वारा लिखा हुआ,तिथि-नक्षत्र का
एक दस्तावेज,अभी भी मैं सभांले हुए हूं,जतन से—यह प्रमाणित करने के लिये,कि मैं,६६
वर्ष की हो गई हूं.
समय बहुत-बहुत बनावटी हो गया है,नहीं, हमने उसे बनावटी बना
दिया है.इसमें गुंथी तारीखें,लगती हैं प्लास्टिक के फूलों की एक माला है,जहां ३६५
दिनों को एक-एक नाम देकर
नकली फूलों की माला की तरह पिरो दिया है.एक चलन,एक रिवाज,एक
फैशन,और इस पिरोने की व्यवस्था में टेकनोलोजी बहुत कारगर सिद्ध हो रही है---एक
रिवाज,फेसबुक—एक फैशन.
एक शहर में,कुछ दूरी पर अपने रह रहें हैं(यह भी परिभाषित
करना अब जरूरी हो गया है कि,’अपना’ हम किसे कह सकते हैं और कहना चाहिये)
आते-जाते,अपनों के दरवाजों के सामने से गुजरते भी होंगे----लेकिन ऐसे मौकों पर वे
अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं,फेसबुक के माध्यम से.
खैर,आप और हम मन मसोसे भी तो कितना,कब-कब और आखिर क्यूं?
फैंकी हुई शुभकामनाओं को हम भी उठा लेते हैं,सूखे हुए फूलों
की तरह,जहां ना कोई खुशबू है,ना कोई कोमलता और हथेली पर रखते ही बिखर जाती हैं,
पंखुडियां.
कभी-कभी,अपने बहुत दूर चले जाते हैं---पास होते हुए
भी,परिस्थितिवश,अक्सर स्वंम की गढी वितृष्णाओं के कारण---दूरियां मीलों में ही
नहीं नापी जाती.
क्यूं?
आज की टेकनोलोजी दूरियों को समेट रही है,जाने-अनजाने,हम उसे
लंबा कर रहे हैं.मन की सीमाओं को कौन काटेगा?
इस जन्मदिन पर,मैं ढूंढ रही थी अपनों को,कुछ तो मेरे पास ही
थे----लेकिन,जिनको खुद आना था,उनको बुलाने का प्रयोजन फीका सा लगने लगा.
कभी,अपना, जाना जरूरी होता है----कभी-कभी उनका भी आना जरूरी
है.यही बात समझ आ जाय तो----? संजय ,रचना,गुन-गुन---ऐसे मेरे परिचित,जिनसे परिचय
किसी औपचारिकतावश हुआ और समय के साथ-साथ अनौपचारिक होता गया.
उन्हें जब मालूम हुआ कि-----यह दिन मेरे जीवन की एक खास
तारीख है,तो----’आंटी जी,आपको हम इस दिन अकेले नहीं रहने देंगे.’
वैसे तो जीवन-यात्रा नितांत अकेले ही चल रही है,और वैसे भी
हम सब, भीड में भी अकेले ही हैं,अब कान को कैसे भी पकड लीजिये,फर्क नहीं है.
सुबह से ही मैंने घर को एक नया लुक देने का प्रयास किया---शाम
होते-होते,घर की सभी बत्तियां जला दीं,मन की दीवाली मन से ही मनती है.
सफैद-गुलाबी कोंबनेशन की एक हल्की साडी का चुनाव किया और
खुले बालों के साथ तैयार हो गई.जरूरी नहीं बालों का लंबा होना.
और,शाम करीब ८ बजे,दरवाजे की बेल बजी,ऐसे मौकों पर कदमों की
आहट,आने वालों की पहचान बता देती है.
दरवाजा खुलते ही-----हेप्पी बर्थ डे,आंटी जी---पता है, यही
तो कहना है.
संजय,रचना का एक साथ कहना—आंटी जी आज आप बहुत अच्छी लग रहीं
हैं.
पता था,फिर पूछा---क्या कल अच्छी नहीं लग रही थी.
होता है,कभी-कभी,ऐसा भी होता है.
Can you imagine???
जीवन में पहली बार,केक काटा,वह भी---हेप्पी बर्थ डे टू
यू,की टिन-टिन के साथ.
हम नाहक ही विदेशी रीत-रिवाजों को नकारते हैं,कारण स्वंम को
पोषित करने के लिये.
मैं,अपने आंसू रोक नही सकी---इतनी खुशी,इतना अपनत्व जो
सम्भाले नहीं संभल रहा था.
क्यों कि,अप्रत्याशित सदैव ही चौगुना हो जाता है.
आंखे,ऊपर उठ गईं कृतग्यता में---और क्या चाहूं ,क्या
मांगू,किसकी प्रतीक्षा,उनकी जो आना नहीं चाहते या उनकी जो आ नहीं सकते?
क्यूं नहीं उन खुशियों को समेटूं जो मेरे दरवाजे की डोरबेल
बजा रही हैं.
इसके बाद,कुछ यादगार,बहुत ही सुंदर स्नेप्स,सत्य ही मन की
प्रसन्न्ता और संतोष
सुंदरता बन मेरे चेहरे पर साफ झलक रही थी,वैसे मेरे
स्नेप्स,अक्सर अच्छे नहीं आते हैं.
कोशिश करनी पडती है---कि,चेहरा ऐसे करूं,या---
बेहद खूबसूरत पलों को समेटे,जहां मैं कहती रही मेरे ६
नाती-पौते हैं,और क्या मांगू---वहां,गुनगुन अपना अधिकार मांग रही थी----नहीं,६
नहीं ७..
और संजय का पूछना---आंटी जी,आज सच-सच बताइये आपकी उम्र क्या
है?
६६ वर्ष पूरे कर लिये.
आज,यदि,१०० वर्ष की होती तो---नहीं छुपाती.
काशः
पुनः,आंखे टिक गईं कमरे की छत पर,कृत्यग्यगता से----
why can’t we see---the ‘Rainbow’ in the clouds???
बिखरे हैं स्वर्ग---चारों तरफ.\
बहुत सुंदर ..रक्षाबंधन की शुभकामनायें
ReplyDeleteसुन्दर , सकारात्मक सोच एक बड़ा सम्बल है.......... हार्दिक शुभकामनायें ....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteThanks
Deleteसोफा कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है ... मैं कल्पना कर सकता हूँ कमरे और आपके आनंद का ...
ReplyDeleteThanks with an humble letter.
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-08-2014) को "प्यार का बन्धन: रक्षाबन्धन" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1702 पर भी होगी।
--
भाई-बहन के पवित्र प्रेम के प्रतीक
पावन रक्षाबन्धन पर्व की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks Shastreejee--for giving space for my post-ye rishte--'
Deleteआपको बीते जनमदिन की अनेक शुभ कामनाएँ। आप ऐसे ही खुश रहे, मुस्कुराती रहें।
ReplyDeleteThanks
Deleteबहुत सुंदर.मन की ख़ुशी कब कहाँ मिल जाए,कहा नहीं जा सकता.
ReplyDeleteशुभकामनाएँ !
Thanks
Deleteबहुत सुन्दर और सारगर्भित प्रस्तुति...शुभकामनायें!
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteमंगलकामनाएं !
Thanks
DeleteThaks
ReplyDeleteबेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई..
ReplyDeleteसंजय जी,
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद
बहुत सुंदर..रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस की बधाई।।
ReplyDelete