आज,लगता है,विग्यान व धर्म की प्रितिस्पर्धा में,समाज की चूरें ढीली हो रहीं हैं और मनुष्य की आस्था,दुराग्रहों व पूर्वाग्रहों का खंडहर बनती जा रही है.
विग्यान,जितना अधिक अपने आयामों को खोज रहा है,उतना ही धर्म,सत्य से दूर हो रहा है
धर्म क्या है,क्या होना चाहिये? आस्थाओं ने इन अवधारणाओं को विभिन्न रूप से परिभाषित किया है.
विश्वास या आस्था—सार्वभौम सत्य नही हैं,जो कालातीत हो,जो सृष्टि के रूप का प्रितिबिंब हो,प्रकृति की सार्वभौमिकता का अटूट हिस्सा हो.
विश्वास व आस्था—हर युग में परिवर्तित होती रही है,मनुष्य की मानसिकता के अनुरूप,वे बदलती रहीं हैं.
मनुष्य की मानसिकता—उसकी समाजिक-भोगौलिक परिवेष का अक्श है.
जो विश्वास,दुनिया के एक हिस्से में माननीय है,वही दूसरे हिस्से में माननीय नही हो सकता,क्योंकि,विश्वास व आस्था,मानवीय आंकलन का गणित है.
आज,इस नितांत वैग्यानिक युग में भी—धर्म,अपने ढोंगों को,अधिक से अधिक पौषित कर रहा है,और मनुष्य विग्यान की चादर ओढे,गहरी नींद में सो रहा है.
यह,कैसी विडंबना है?
दो दिन पूर्व,मथुरा नगरी,जो श्री कृष्ण की जन्म-स्थली है,के भ्रमण का मौका मिला.
इस भ्रमण का मुख्य उदवेश्य,कुछ पुराने,कुछ नए मंदिरों में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन मात्र था.
इस दौरान,मथुरा-वृदावन,नगरियों का भी घूमना हो ही गया.
पुराने नगर हैं,वह भी आस्था के,फिर भी आस्था व विश्वास के नाम पर,छीना-झपटी,लूट-खसोट व निम्न स्तर की दुकानदारी,सडकों पर,मंदिरों में,सब जगह.
ऐसे स्थानों पर एक अलग स्तर की ऊर्जा होनी चाहिये,वह महसूस नही हो रही थी,लग रहा था,मंदिरों की चौखटों पर भी,दुकानदारी चल रही थी.
एक-एक मंदिर में,दस-दस दान पेटियां.अब,सुबह से शाम तलक,यदि १०० यात्री भी आता है,तो १० पेटियों में से,एक या दो पेटियों में तो कुछ ना कुछ डाल कर जायेगा.
पेटियां भी,ऐसे स्थानों पर रखी जाती हैं,जहां एक नज़र उन पर,मंदिर में विराजमान भगवान की अवश्य पडती रहे.
यही नज़र,हर भक्त को शंकालु बना देती है—यदि कोई बच कर निकलना भी चाहे तो झूठी आस्था का एक हाथ ज़ेब तक पहुंच ही जाता है.
वृंदावन से थोडी सी दूरी पर,कई मंदिरों की नीवें रखी जा रहीं हैं.कुछ तो तैयार हो कर दुकानदारी में लग भी चुके हैं वैश्नों देवी जम्मू के पहाडों से उठ कर,अर्ध रेगिस्तान में विराजमान हो गईं हैं—गुफाओं का आडंबर.
इन मूर्तियों व धार्मिक प्रितिष्ठानों पर करोडों खर्च किये जा रहे हैं,पत्थरों के पहाड काट-काट कर,उपजाऊ जमीन पर आटे जा रहें हैं.
पता नही,इतना इन्वेस्ट्मेन्ट किस तरह किया जा रहा है?काला सफ़ेद हो रहा है या सफ़ेद काला.
किसानों को बेघर किया जा रहा है,केवल कुछ लाखों पर.पीढी दर पीढी वे मज़दूर बन रहें हैं.
आर्थिक-प्रपंच---आस्था के नाम पर.
बंगाल में,वहां के समाज में,आज भी,विधवाओं की बडी दुर्दशा है.उनके अपने ही,उन्हें यहां बने जर्जर विधवा-आश्रमों में,निराश्रित छोड जाते हैं,उनके जीते जी,वे उन्हें देखने भी नहीं आते हैं.
हमारी धार्मिक-समाजिक आस्था व विश्वास का,एक कलुषित रूप यह भी देखने को मिला.
इन धार्मिक नगरियों में,विधवाएं,हाथों को फैलाए,गिडगिडाते हुए,एक-एक रुपए के लिए,हम जैसे धार्मिक लोगों के पीछे,ऐसे दौडती हैं,जैसे कि एक कुत्ता,रोटी के एक टुकडे के लिए.
वाह री आस्था,क्या विश्वास?हमारे धर्म का कुरूप चेहरा?
एक ओर तो करोडों खर्च करके,सच्चे भगवानों को भी,झूठा व लालची बना कर बिठया जाता है-
दूसरी ओर,सच्चे भगवानों को दुद्कारा जाता है.
झूठी आस्थाओं के,पथरीले मंदिरों के बनाने वालों को—क्या कभी खयाल भी आया हैकि,पहले वे,तपती सडकोम पर, नंगे पैर,हाथ फैलाए,भगवानों को,उनके उचित स्थानोम पर स्थापित कर दें.
ओशो कहते हैं------
धर्म—मनुष्य की अधिकतम आनंद,मंगल और आनंद और सुख देने की कला है.
मनुष्य---कैसे,अधिकतम रूप से मंगल को उपलब्ध हो,इसका विग्यान ही धर्म है.
मन के-मनके
सच ही तो लिखती हैं आप....!!
ReplyDeleteसमयानुकूल सार्थक चिंतन...
सादर....
स्थितियाँ चीख रही हैं, सुधरना चाहती हैं।
ReplyDeleteकल 08/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
सार्थक चिंतन.
ReplyDeleteअनदेखे-अपनों के मनकों का स्नेह ऐसे ही बना रहे। आपका सदा स्वागत है।
ReplyDelete"ऐसे स्थानों पर एक अलग स्तर की ऊर्जा होनी चाहिये,वह महसूस नही हो रही थी,लग रहा था,मंदिरों की चौखटों पर भी,दुकानदारी चल रही थी."
ReplyDeleteबहुत सच्ची बात कही है आपने...ये बात आपको हर धार्मिक स्थान पर देखने को मिलेगी...दुकानदारी देख कर ऐसी जगहों पर जाने का मन ही नहीं करता...आप कितने ही धार्मिक हों लेकिन देख कर मख्खी नहीं निगली जाती. ख़ुशी हुई जान कर के आप ओशो को पढ़ती हैं...उनके विचार क्रांतिकारी थे जो पोंगा पंडितों को हज़म नहीं हुए...
नीरज
bahut acchi post hai...
ReplyDeleteऐसा लगता है की न हम सुधरेंगे , न ही हमारी आस्था ! तो फिर परिणाम तो यही होंगे ! जैसा बोयेंगे वैसाही काटेंगे !
ReplyDeleteसच लिखा है आपने ... पर आस्था के पुजारी ये सब नहीं सोचते शायद ...
ReplyDeleteसटीक प्रासंगिक चिंतन ...... सहमत हूँ आपसे
ReplyDeletesarthak lekh..achchha lga...
ReplyDeleteपरिवर्तन आना है, आएगा भी, देर-सवेर!
ReplyDeleteअच्छा विषय लिया आपने. सही नजरिया रखा है आपने.
ReplyDeleteबधाई.
आस्था के नाम पर लुट के लिए एक पूरी कम्युनिटी तैयार हो चुकी है जिसे हम पंडावाद कह सकते है|
ReplyDeleteजो कोई इस लुट के खिलाफ बोलता है उसे ये पंडावादी विधर्मी घोषित करने पर उतारू हो जाते है|
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बिल्कुल सही कहा है आपने ..आभार ।
ReplyDeleteधर्म,समाज और आस्था पर बहुत ही बढ़िया गहन विचार व्यक्त किये है आपने... बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति है..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनायें!
लोगों को भगवान् की पहचान नहीं है
ReplyDeleteआपका लेख प्रभावित करता है ...
शुभकामनायें आपको !