जीवन की पूरी परिभाषा करें और सरल-सहज शब्दों में करें,तो संबन्धों की डोरी में,अहसासों के मोतियों की लडी है,जब चमकती है,अपनी चमक की आभा चारों ओर बिखेर देती है,जब भी हम उन मोतियों को,समय-समय पर साफ करते हैं,उन्हें अपनी स्मृतियों के आंचल के कोमल स्पर्श से छूते रहे हैं.
इस अहसास से,मानव जीवन ही सिंचित नहीं होता,पशुओं में भी इस अहसास को महसूस किया जाता रहा है,बेशकः उनकी पशुता,कितनी ही पाशविक क्यों ना हो.
इन अहसासों की छांव तले,वे भी मानवता के गुणों से भर जाते हैं,तब मनुष्य-पशु के बीच की खाई की गहराई कम हो जाती है.लगने लगता है,ईश्वर ने,इन अहसासों को,सबको समानता के आधार पर बांटा है,भेद हमारी आंखों में रह जाता है,ईश्वर की निगाहें भेद रहित हैं.
जीवन में,कभी-कभी कुछ घटनाओं के घटित होने के कारण समझ में नहीं आते हैं,हांलाकि,कुछ समय बाद लगता है,यदि ऐसा ना होता तो ये ना होता या ऐसा नहीं होना चाहिये था.
अपने कुछ संबन्धों की विवेचना जब भी करती हूं,तो लगता है कि यदि ऐसा हो जाता या मैं ऐसा कर पाती तो इन घटनाओं की परिणिति कुछ और ही होती,परंतु बात लौट कर वहीं पर आ जाती है—नियति ने लिखा ही यही था तो ऐसा क्योंकर न होता?
खैर,प्रश्न-दर-प्रश्न,हमें कहीं नहीं पहुंचाते,या तो ,हम दार्शनिक प्रश्नों पर उलझे रहेंगे या फिर
दोषारोपण के चक्रव्यूह में घिर कर,अपराधबोधों के बाणों से धाराशायी हो जाएंगे.
जीवन का स्वभाव,पानी के स्वभाव जैसा जान पडता है—पानी को जिस पात्र में रखें,वह उस
पात्र की शक्ल में परिवर्तित हो जाता है,जीवन को,जितना ही हम उलझाते जांए,वह उलझता जाता है और उलझी हुई ऊन के गोले को सीधा लपेटना शुरू कर दें ,तो ,एक गोले की तरह हमारी मुठ्ठी में आ जाता है.
बात अह्सासों से शुरू की थी,एक अहसास-पश्चाताप का,उन अहसासों के लिये,जिनको हम वक्त रहते महसूस ना कर पाये और हमारे पास केवल पश्चाताप है,जिसे हृदय के पास थोडी सी जगह
देनी चाहिये,अपनी भूल को,अपने दंभ की तपिश पर,ठंडे पानी की छीटें देने के लिये,ताकि,यह तपिश
हमें भस्म ना कर दे और हम कहने का साहस कर पाएं कि हमें पछतावा है,हमने पश्चाताप के कुछ
आंसू,पलकों पर रख लिये हैं,जिनकी गर्माहट आगाह करती है कि जीवन की राह पर पडे अहसासों के फूलों को दंभ के पैरों से रोंदते हुए ना निकल जाना,कोशिश करना कि उन फूलों को उठा कर
अपनी मुठ्ठी में बंद करने की,ताकि कभी जब हम अकेले रह जाएं तो उन फूलों की महक साथ चल
सके.
सार्थक पोस्ट ... विचारणीय ... स्वयं की पहचान कराती हुई
ReplyDeleteसुंदर आलेख
ReplyDeleteपश्चाताप बहुत जरूरी है
सार्थक लेख ........मन को टटोलने के लिए बढ़िया लेखनी
ReplyDeleteपश्चाताप की अग्नि ...जब आत्मा पर भारी पड़ती है तो ....शुद्ध आत्मा सोने के सामान तप कर निकलती है ..-पश्चाताप की आग उसे सोना बना देती है
जीवन को,जितना ही हम उलझाते जांए,वह उलझता जाता है और उलझी हुई ऊन के गोले को सीधा लपेटना शुरू कर दें ,तो ,एक गोले की तरह हमारी मुठ्ठी में आ जाता है.
ReplyDeleteवाह कितनी अच्छी बात कही है आपने...मेरी एक ग़ज़ल का शेर है:
'नीरज' सुलझाना सीखो
मुद्दों को उलझाना क्या
मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है।
ReplyDeleteजीवन का स्वाभाव पानी जैसा ही है...
ReplyDeleteसार्थक बात!
अत्यंत सार्थक चिंतन....
ReplyDeleteसुन्दर आलेख...
सादर....
जीवन के यथार्थ को दर्शाती रचना…बहुत सुंदर…आभार!
ReplyDeleteये सच है जीवन को सरलता से लेना ही उचित रहता है ... जो सहज आए उसे ग्रहण कर लेने में जीवन की सार्थकता है ... बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ... चिंतन करने योग्य ...
ReplyDeleteअपनी महक औरों को प्रभावित करे न करे, स्वयं को आनन्द तो देती ही रहेगी।
ReplyDeleteक्या बात है, बहुत सुंदर लेख
ReplyDeletehttp://aadhasachonline.blogspot.com/
बहुत सार्थक चिंतन...बहुत सुन्दर विचारणीय आलेख..आभार
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिंतन. सुंदर आलेख...…आभार!
ReplyDeleteबहुत सारी बातें सीखने को मिली...आभार|
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