प्रिय पाठको पिछले दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो इसका मै ध्यान रखूगी
इसी सन्दर्भ मे कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
दोस्तो, एक अरसा हुआ
आप से रुबरु न हो पाए हम
दिन तो महज कुछ ही थे
मगर जैसे सालों का फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे खुद को हम
अचानक शीशे मे चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी लगने लगी
कभी खुद को ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या हुआ था हमे
सब कुछ बंद था मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई राहो पर हम
मन के – मनके
डॉ. उर्मिला सिंह जी!
ReplyDeleteआपने बहुत भावप्रणव रचना लिखी है!
बहुत ही बेहतरीन रचना है.
ReplyDeleteओशो वाले तो बहुत मस्ती से जीते है।
ReplyDeleteबड़ी ही सुन्दर रचना।
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