अब तो बरसातों के भी नज़ारे बदल गए हैं.मंहगाई में बरसात भी जकडी हुई जान पडती है.मुझे अपने बचपन की बरसातें ऐसे याद आतीं हैं,जैसे कि मेरा बिछुडा हुआ हम्साथी हो.
इस ब्लोग पर कुछ ऐसी ही पंक्तियां लिख रही हूं,उस भूले को याद कर रही हूं.
आशा है,आप भी मेरे साथ इन यादों में शामिल होना चाहॆंगे.
सोंधे से, कमरे की खिडकी से दूर.
शीशों से झांकते, मौनी-आसमान में कहीं,
बारिश की, ठंडी फ़ुहारों---की,
गीली सी मोतियों की लडी,
जो लिपट गई है,खिडकी के शीशों से ऐसे,
जैसे कि,किसी नवेली के गर्दन से, हीरों का हार,
पर, बीते हुए बचपन---------में अक्सर,
कमरों की खुली खिडकियों से,
बारिश के आने से पहले,
पुरवैया के ठंडे झोंकों में ही,
आ जाते थे,बारिश के आने के संदेश,
स्वागत में उसके, खुल जाते थे,बंद दरवाजों के पाट,
कहीं,आंगन में,जलते चूल्हे में,
पानी की छींटे दे, होम कर रहे, काले-मेघ,
तो, कहीं चढी देगची चूल्हे पर,
ठंडी कर रहे----काले मेघा,
जब तक,घर-आंगन,कोने-कोने,
तर-बतोर न कर जाएंगे,
तब तक,मेघा-काले,बूंद बुदरिया ले,
लौट,और गांव न जांएगे,
स्वागत है,हर वर्ष तुम्हारा,
पूरब से आए मेहमान,
पर,तनिक सांस तो आने दो,
घर-आंगन,बैठक-चौबारों को,
सूख तनिक तो,जाने दो,
आसन-पीढी,घर-द्वारे,बिछ जाने दो,
ठंडे चूल्हों को,गरम जरा हो जाने दो,
भीगी पांत,मूंग-मगोरी-------------की,
खाट-खटोलों पर-----------बिछ,
सूख जरा जाने------------दो,
चूल्हों से उठती ठंडी लपटों पर,
मजी कढाई चढ जाने ----दो,
बूढी अम्मा के हाथों से,
, बेसन के चीले तो सिंक जाने दो,
तैल भरी,गरम कढाई को,
मीठे पुओं-गुल्गुलों से भर जाने दो,
अगले बरस,फ़िर आना काले मेघ,
गंगा-जल,गगरी में भर कर,
अपनी मनमानी, जी भर कर,
कर जाना---------काले-मेघा,
बहुत खूब...क्या कहने इस रचना के..
ReplyDeleteवाह !! क्या कमाल लिखा ..
ReplyDeleteअगले साल, फिर से आना काले मेघा।
ReplyDeleteबरसात का पूरा लुफ़्त उठाया...
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