भीड , वह मनोविग्यान है , सभी को भीड मेम रूपांतरित कर देता है . भीड , चीख रही है, हम भी चीख रहे हैं . भीड पाशविक हो रही है , हमे भी पशु बना रही है . भीड , कभी भी स्वम- विकास, स्वम - उत्थान को जगह नही देती है . यह भीड का स्वभावगत आरोप है जैसे कि , बाढ वाली नदी किसी की नही सुनती बस, सबको अपने साथ बहा करलिये जाती है .भीड का स्वभाव ही ’ हावी होना , है . वहां , व्यक्ति के लिये स्थान नही. अतः , भीड , जो समाज का प्रितिबिम्ब है , क्या उसे छोड कर कहीं जाया जाय , स्वम - मुक्ति के लिये ?सन्यास ले लें , जंगलों में भाग जायें , गुफ़ओं में मुंह छुपा कर बैठ जायें ?ओशो , कहते हैं - नही , ना तो सम्भव है ना ही कोई औचित्य है , यहां , दृष्टा - भाव को विकसित करना होगा . भीड में रहते हुये भी , निगाहें स्वम टिकी रहें , भीड पर केवल हष्टा भाव रखना चाहिए जब स्वयं पर नजर टिक जाएगी तभी स्वयं उत्थान की ओर बढ पाएगे क्यो कि तब तक हम अर्जुन की तरह मछली की पुतली को ही देख पा रहे है हालाकि यहां और भी बहुत कुछ है देखने के लिए ! लेकिन अर्जुन का लक्छ मछली की पुतली भर ही है ओशो कहते है (संभोग से समाधि की ओर )समाज ही के दर्पण मे अपनें प्रतिबदं को देखना बदं कर दें
स्थिर कर , मस्त मौला हो जीवन यात्रा पुरी करना ही स्वयं मुक्ति भाव - स्वयं वोध है ओशो कहते है - जब हम स्वयं केद्रिंत होने लगते है उसी छ्ण हमे हमारी पहचान होनी शुरू होने लगती है हमारी समस्त विकृतियां ,कमजोरियां अपने मुखोयं को उतारने लगती है कि वह उन्हे दफना सकें ओशो कहते है - पैर चुभा कांटा पैर में तभी तक फंसा रह सकता है जब तक हमे उसके द्वारा दी गई पीडा महसूस न हो और जिस छ्ण उस टीस को हम महसूस करने लगते है काटें को पैर से निकालना निहायता जरूरी हो जाता है
यही स्वयं - मुक्ति है सहस्त्र नमन - ओशो मन के - मनके
सीधी सी बात - " लोग क्या सोचते है, समाज क्या कहेगा " आप प्रश्न चिन्हो को तिरोहित कर स्वंय की पहचान कर अपने लक्छ को
स्थिर कर , मस्त मौला हो जीवन यात्रा पुरी करना ही स्वयं मुक्ति भाव - स्वयं वोध है ओशो कहते है - जब हम स्वयं केद्रिंत होने लगते है उसी छ्ण हमे हमारी पहचान होनी शुरू होने लगती है हमारी समस्त विकृतियां ,कमजोरियां अपने मुखोयं को उतारने लगती है कि वह उन्हे दफना सकें ओशो कहते है - पैर चुभा कांटा पैर में तभी तक फंसा रह सकता है जब तक हमे उसके द्वारा दी गई पीडा महसूस न हो और जिस छ्ण उस टीस को हम महसूस करने लगते है काटें को पैर से निकालना निहायता जरूरी हो जाता है
यही स्वयं - मुक्ति है सहस्त्र नमन - ओशो मन के - मनके
सीधी सी बात - " लोग क्या सोचते है, समाज क्या कहेगा " आप प्रश्न चिन्हो को तिरोहित कर स्वंय की पहचान कर अपने लक्छ को
सीधी सी बात - " लोग क्या सोचते है, समाज क्या कहेगा " isi me aadmi rah jata hai
ReplyDeleteअच्छा और सटीक लेख!
ReplyDeleteदूसरों पर निर्भर रह कर तो मुक्ति संभव नहीं है।
ReplyDeleteबहुत ही सही लिखा आपने ...सटीक लेख!
ReplyDeleteसार्थक आलेख....
ReplyDeleteयूँ ही जुड़ते हुए परसाई जी का व्यंग्य आलेख याद आया: 'आवारा भीड़ के खतरे'