दूर खडी , पांत समय की
लगती है , इन्द्रधनुष सी क्यों
आज , चांदनी सी भी , जीवन की
लगती है , अन्गारी , कांटों सी क्यों
ऐक , धूप का फ़ैला आंचल
कर जाता मन को घायल
ऐक धूप , बबूल - कटीली सी
बन जाती , मांक ा आंचल , क्यों
जब , गर्मी की , तपती रातों में
खुले आसमान के साये में
अम्मा , तायी , चाची , बुआ , पतोही की
बिछ जाती थीं , खाटों की ------पांत
छोटी - छोटी , धुली - पुछी सी
रख , जातीं थीं , लाल सुराही ( आंगन की बन शान )
घर - आंगन के नन्हे- मुन्ने, भी
अम्मा के आंचल से मुंह ढक कर
रोज़ सुनी - सुनाई राजा - रानी , और
दूर - देश , परियों की गाथा
सुन कर ही , सोने का
करते थे ---- पक्का , वाद
छोटी बुआ , तारों की दुनिया में खोयी
ढूंढ रही होती थी , सपनों का राज्कुमार
चाची , तायी में होड़ लगी होती थी
करने को ध्रुव तारे की पहचान
कोने मे लेटीं , उनीदी सी अम्मा
बार - बार, हडका थीं डंडा
घर का झ्हबरा टामी --- भी
दरवाजे तक, जा - जाकर
घर के कोने , सूंघ - सूंघ कर
करता था अपना फ़र्ज़ अदा
नीली चादर पर , टका गुथा सा
तीन गांठ का -------------- पैना
उडन - खटोला , आसमान के आंगन में
सात दमकते तारों --------------- का
पूरब से चल , पश्चिम तक
चुपचाप , खिसक कर आजाते थे
तब कहीं , गर्म बिस्तरे
ठंडक से तर हो पाते थे
नींद भरी , गागर , सपनों की
छलक अभी न पाई थी ---
और , सूर्य देवता , आसमान में ,
आ , पहुंचे , सतरन्गी किरणों के साथ
मिची - मिची, सी , आंखे खोल
मीठी सी , झिडकी के साथ ( आ, गये इतनी जल्दी क्यों )
सूर्य - देवता का घर - घर
होता था , अलसाई - सत्कार
मन के - मनके
लगती है , इन्द्रधनुष सी क्यों
आज , चांदनी सी भी , जीवन की
लगती है , अन्गारी , कांटों सी क्यों
ऐक , धूप का फ़ैला आंचल
कर जाता मन को घायल
ऐक धूप , बबूल - कटीली सी
बन जाती , मांक ा आंचल , क्यों
जब , गर्मी की , तपती रातों में
खुले आसमान के साये में
अम्मा , तायी , चाची , बुआ , पतोही की
बिछ जाती थीं , खाटों की ------पांत
छोटी - छोटी , धुली - पुछी सी
रख , जातीं थीं , लाल सुराही ( आंगन की बन शान )
घर - आंगन के नन्हे- मुन्ने, भी
अम्मा के आंचल से मुंह ढक कर
रोज़ सुनी - सुनाई राजा - रानी , और
दूर - देश , परियों की गाथा
सुन कर ही , सोने का
करते थे ---- पक्का , वाद
छोटी बुआ , तारों की दुनिया में खोयी
ढूंढ रही होती थी , सपनों का राज्कुमार
चाची , तायी में होड़ लगी होती थी
करने को ध्रुव तारे की पहचान
कोने मे लेटीं , उनीदी सी अम्मा
बार - बार, हडका थीं डंडा
घर का झ्हबरा टामी --- भी
दरवाजे तक, जा - जाकर
घर के कोने , सूंघ - सूंघ कर
करता था अपना फ़र्ज़ अदा
नीली चादर पर , टका गुथा सा
तीन गांठ का -------------- पैना
उडन - खटोला , आसमान के आंगन में
सात दमकते तारों --------------- का
पूरब से चल , पश्चिम तक
चुपचाप , खिसक कर आजाते थे
तब कहीं , गर्म बिस्तरे
ठंडक से तर हो पाते थे
नींद भरी , गागर , सपनों की
छलक अभी न पाई थी ---
और , सूर्य देवता , आसमान में ,
आ , पहुंचे , सतरन्गी किरणों के साथ
मिची - मिची, सी , आंखे खोल
मीठी सी , झिडकी के साथ ( आ, गये इतनी जल्दी क्यों )
सूर्य - देवता का घर - घर
होता था , अलसाई - सत्कार
मन के - मनके
जब , गर्मी की , तपती रातों में
ReplyDeleteखुले आसमान के साये में
अम्मा , तायी , चाची , बुआ , पतोही की
बिछ जाती थीं , खाटों की ------पांत
बहुत बढ़िया...........सही कहा आपने...
धूप का फ़ैला आंचल
ReplyDeleteकर जाता मन को घायल
ऐक धूप , बबूल - कटीली सी
बन जाती , मांक ा आंचल , क्यों
बहुत अच्छी बात कही है. यह सभी को ध्यान रखने कि बात है. बहुत सुंदर भावना और सुंदर कविता.
garmiyon ki raat jo purvaiyan chalein...thandi safed chaadron per jagein der tak...taaron ko dekhate rahein chhat per pade huye...
ReplyDeletebahut sundar khaka khincha hai...jab sara khandaan ek chhat ke upar sota tha...raat kaise kat jaati thi pata bhi nhain chalta tha...ati sunder
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपुराने दिन याद करा दिए ....आज कहाँ आँगन और छत पर सोने को मिलता है ..न आँगन है न छत :) अधर में लटके फ़्लैट हैं ..
ReplyDeleteवाह, कितनी सारी यादें।
ReplyDeleteरचना पढ़कर हम भी अपने अतीत में खो गये!
ReplyDeleteक्या क्या न याद आया...बहुत गोते लगाये यादों के सागर में पढ़ते पढ़ते!!
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