प्रारब्ध :
गंतव्य से आगे---
इतिहास के उपरोक्त विवरण को पढ़ कर,अनायास ही मन में कई प्रश्न उठने लगते हैं--
कि, सम्राट अशोक के पास इतना विशाल सम्राज होते हुए भी उन्होंने कलिंगा परआक्रमण क्यों किया?
कि,वे मानव जीवन के भयंकर नरसंहार के कारण क्यों बने ?
इन प्रश्नों को यदि गहनता से विचारा जाए,तो--
एक उत्तर सामने खडा हो जाता है--
कि, मनुष्य को कर्मयोगी होना ही होता है,अपने बोये हुए बीजों को फलित करने के लिए.
उसके संचित कर्म वा उनके परिणाम अनेक जन्मों की प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं जब तक कि,संचिता कर्म उसे परम मुक्ति की ना ले जाऍऔर वह परम में विलीन हो मुक्त हो सके.
प्रश्न दूसरा---
यदि मुक्त होना ही परम से परमात्मा तक की यात्रा है तो नरसंहार क्यों---?
नरसंहार का कारण बनाने के बजाय,वे मानव उत्थान की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए?
प्रश्नऔर भी कुरेदे जा सकते हैं और उनके अनेक उत्तर भी गढ़े जा सकते हैं.
जीवन की विवेचना वा जीवन के प्रयोजन को समझने के लिये,हम वर्तमान को देखकर ही जीवन की
संपूर्णता को नहीं समझ सकते.
जीवनधारा केवल उतनी ही नहीं है ,जितनी हमें दिखाई देती है.
किसी भी नदी के तट पर खड़े होकर हम उसकी धारा को उतना ही देख पाते हैं,जितनी हमारी नजार उसे देख पाने में सक्षम है.
लेकिन,
इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि, नदी का विस्तार भी उतना है, जितना हम उसे देख पा रहे हैं.
कहां जीवन रूपी नदी का उद्गम है, कहां ,किस अगत्य महासागर में उसे विलीन होना है,और क्यों---
इन अगत्य प्रश्नों के उत्तर हमारे पास कभी नहीं होंगे---
क्योंकि, हमारी ऐन्द्रिअक क्षमता को एक सीमित परिधि में सीमित किया गया है---
ताकि, जीव ,जीवन कीअनंत धाराओं से होते हुए अपने कार्मिक चक्रव्यूह से निकल
सके और जीवन के उद्गम में विलीन हो जाए,पुनः एक और धारा का प्रवाह होने के लिए.
आगे की कड़ी को अगली पोस्ट में जोड़ने का प्रयत्न करूंगी.
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