Friday, 5 September 2014

स्मृतियों के अमलतास


                स्मृतियों के अमलतास

खैर,जिंदगी का हिसाब तो नहीं लगाया जा सकता ना ही ऐसी कोशिश करनी चाहिये.
हां ,जिंदगी का ऐसा मोड भी आता है,जब पैर ठिठक जाते हैं---लगता है आगे जांय या पीछे मुड कर देखें.
आगे की राह कभी-कभी इतनी नितांत हो जाती है कि डर लगने लगता है,क्योंकि मनुष्य सदैव अगत्य से डरा है---उसकी सबसे बडी कमजोरी उसका अकेलापन है,परंतु इस अकेलेपन के दुरूह में भी उसे आगे ही बढना होता है और बढना भी चाहिये—जीवन ठहराव नहीं है.चरेति-चरेति---मनुष्य की नियति है.
तो,कभी-कभी पीछे लौट कर,छूटे हुए रास्तों से उन फूलों को चुन लेना चाहिये जिनकी खुशबुएं उनके मुरझाने के बाद भी हमारे आस्तित्व को महका जातीं हैं जैसे किताब के पन्नों में दबी गुलाब की पंखुरियां.
इन खुशबुओं के सहारे---निर्जन रास्ते भी महकने लगते हैं.
इस संदर्भ में---कोशिश कर रही हूं,उन फूलों को चुनने की.
आप भी ऐसी ही एक कोशिश करिये—मुझे यकीन है—महक जाएंगे.

शिशु बाल मंदिर---
जब मेरी उम्र करीब ५-६ वर्ष ही होगी—
मां के असामयिक गुजर जाने के बाद मैं  अपनी बडी बहन के साथ रहती थी.
बहन से अधिक वे मेरी मां के रूप में, मेरी स्मृतियों में बसी हैं हालांकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.
मैं उनके प्रति सदैव ही आभार व आदर से नतमस्तक हूं, कि उन्होंने मेरे जीवन के एक खाली कोने को कुछ रंग दिये.
उस समय परिवार में,मैं ही अकेली एक बालक के रूप में थी सो परिवार के स्नेह का केंद्र बिंदु भी मैं ही थी.
मेरा पहला अलमा-मेटर—यानि कि पहली पाठशाला जिसका नाम—शिशु बाल मंदिर था जो आज की व्यस्ततम, एम.जी.रोड पर स्थित था.
यह स्कूल एक पुरानी कोठी में था जिसका संचालन एक संभ्रांत महिला करती थीं.
यूं समझिये—आज कल के प्ले स्कूल की तर्ज पर था यह स्कूल.
करीब १५-२० बच्चे थे—अधिकतर रोते-सुबकते से?
एक-दूसरे को देखकर रोते थे या कि अपने-आप रोते थे कुछ समझ नहीं आता था.
उस समय क्या पढाया जाता था-- याद नहीं है.
लेकिन छोटा सा पीतल का कटोरदान(उस समय तक स्टील के बर्तनों का चलन शुरू नहीं हुया था) जिसमें केवल दो पराठे ही बा-मुश्किल आते थे आम के अचार की फांक के साथ,जिन्हें जीजी(बहन को हम ऐसे ही संबोधित करते थे) असली घी में सेंक कर रखती थीं( अब असली घी की महक भी बदल गयी है).
पता नहीं—जीजी पराठे बडे बनाती थीं या कि कटोरदान ही छोटा था,बरहाल सारा समय कटोरदान को बंद करने में ही व्यतीत हो जाता था.
अचार की फांक सरसों के तेल में लबालब---कटोरदान खुलते ही सौंफ व मसालों की खुशबू---अवर्णीय है.
स्कूल जाने का मकसद---पीतल के कटोरदान में रखे  दो पराठे और पराठों के बीच में दबी आम क्र अचार की फांक के अलावा और कुछ भी नहीं था.
एक दिन उस पीतल के कटोरदान के साथ बहुत बडी घटना हो गयी.
मुझे ऐसा लगता है, कि यदि वह घटना ना घटी होती तो आज मुझे वह स्कूल भी याद ना होता—होता तो लेकिन उसमें आम के अचार की महक ना होती?
खाने की छुट्टी में,प्रिंसीपल साहिबा हम बच्चों को बडे से हाल में गोल घेरे में बिठाया करतीं थी.
एक दिन दुर्भाग्यवश---मुझे दरवाजे के पास बिठाया गया.
जैसे ही पीतल का कटोरदान खोला(वैसे वह अधखुला ही रहता था)—पराठे निकाले जाते,आम के अचार की फांक,पराठों पर रखी जाती,ना जाने कहां से एक कुत्ता आया और---समझिये जो होना था वह हो ही गया.
पराठे क्या गये---हमारी दुनिया ही चली गयी.
आंखों से आंसुओं की झरी,दहाडों की धडी---वहां उपस्थित सभी लोगों के होसोहवास हिल गये.
सभी ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार जतन किये कि कैसे भी इस घडी को टाला जाय—इस विपदा को सुलझाया जाय---हमें शांत किया जाय—मगर हमारे सब्र का बांध टूट चुका था हालांकि प्रिंसीपल महोदया अपनी रसोई से दो गरम-गरम पराठे सिकवा कर भी लाईं और बडे स्नेह से हमें खिलाने की कोशिश भी की गयी---सब निरर्थक.
हमें तो हमारे कटोरदान वाले पराठे ही चाहिये थे—जीजी के हाथों के सिकें---बडे-बडे—कटोरदान से बाहर निकलते हुए---आम के अचार की फांक पराठों के बीच में दबी हुई.
इस स्मृति में अचार की खुशबू में रचे-बसे वो पराठे---आज भी मुझे कुछ स्वाद दे जाते हैं.
वो स्वाद और कहीं नहीं मिला.
क्योंकि,जीजी अब उन्हें असली घी में नहीं सेंकती हैं.

4 comments:

  1. स्मृतियों के झरोखों से निकले ज़ज्बात ..

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  2. स्मृतियों में जो स्वाद एक बार बस जाते हैं इंसान उन्हें ही तलाशता है बार बार ... और जब वो नहीं मिलते तो स्मृतियाँ सूनी रह जाती हैं ...

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...अतीत की स्मृतियाँ जीवन में ख़ास मायने रखती हैं. हमारा मन बार-बार हमें पुरानी स्मृतियों की ले जाता है.

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