बीते दिन की कच्ची यादें
चुभती हैं बन कर शूल
मत आना साथी लौट कर
अब गईं हूं तुमको भूल
यशोदा अग्रवाल द्वारा रचित---नहीं होता है सावन
खुशगवार,नामक शीर्षक के अंतर्गत २८ जुलाई के चर्चामंच में प्रकाशित, दिल को छू
लेने वाली रचना—
मेरे भावों को रोक नहीं पाई या यूं भी कहा जा सकता है—भावों
की धारा कुछ और आगे बह निकली---
बीते दिन की कच्ची यादें
चुभती हैं बन कर शूल
मत आना साथी लौट कर
अब गई हूं तुमको भूल
ओहः!!!
यह कैसा झूठ?
फ़रेब खुद से
खुद का ही
हूं, जैसे कोई चोर?
एक किताब
हरफ़ा-हरफ़ा
सपनों की स्याही में
ख्याइशों की कलम
डुबो---
लिखी थी---
चौबारों में---
छुप-छुप कर---
दिल के कोनों में
कैसे कह दूं?
पन्ने----
मैंने फाड दिये हैं
चिंदी-चिंदी कर
बिखेरे दिये हैं
दिल के—आंगन में
किताब----
अभी भी---
जिंदा है
बस---
वर्कों के कोनों को
मोड---
रख ली है
तकिये के नीचे
छुप-छुप कर
पढने को
कह रही हैं घटायें सावन की।
ReplyDeleteबात कह दी है आप ने मन की।
और भी उलझनें है मन में या,
सिर्फ ये ही वजह है उलझन की।
Thanks,
DeleteThe being is always the 'truth' irrespectable of time,space---so be truthfull to onesself.Osho
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteकिताबें कहीं नहीं जाती ... गुम हो जाती हैं तो भी रहती हैं दिल के किसी कोने में हर्फ़ दर हर्फ़ ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteदिल को छूती भावपूर्ण रचना...
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