अब तो---
ज़मीं की तल्खियां
आसमां को भी चीरती हैं
ये कैसी हुकूमतें हैं
कैसी सियासते हैं
ये कौन से बटवारे हैं
सौदेवाजी हैं---
कौन से हकों की???
ज़मीं के छोर---
समुंदरों के दायरे
गहराइयां---
घाटियों की
चोटियों-----
ऊंचाइयों की
शहरों की----
रोनोकियां
सन्नाटे----
मरघटों के
पूरे
नहीं पडते अब—
दाह
की आग को
बुझाने
के लिये
जमीं तो बट रही
हर एक लकीर पर
सूनी होती हैं—गोदें
सांसे टूटती हैं—
जिंदा जिस्मों में
अनाथों के कल
आज के अंधेरों में
गुम हो रहे---
चिंदे-चिंदे हो रही---ज़मीं
अब सीना भी गैर-जरूरी है
ज़मीं धुंआ-धुंआ हो
रही
आसमां भी----और
स्याह हो गया
अब तो---
जरूरत है—
जाने की चांद पर---???
कम-से-कम
उसकी खिडकी से
झांक तो लें,एक बार
घुप अंधेरे में---
नीली सी—
एक बिंदी!!!
जो सजी है
विस्तार के ललाट पर—
कुछ शब्द----
अभी-अभी की एक खबर----कई प्रश्नों को अनुत्तरित छोड जाती
है---छोड जाती रही है---हमेशा से---अखिर हमें इस ज़मीं पर क्या-क्या चाहिये???
जीवन---जो इतना खूबसूरत है---जीवन के हर पडाव गरिमा से
पूर्ण है---
हम अपनी ही खूबसूरती को रोंद रहे हैं,क्यों???
दुनिया में युद्ध हो रहे हैं—होते ही रहते हैं, वजहें---नईं
नहीं होतीं.
इंसनियत त्रासदियां भोगती है---बच्चे बिलखते हैं---जवान
अपाहिज हो जाते हैं
हमराही बिछु्ड जाते हैं,बुढापा और भी बे-सहारा हो जाता है.
हाथ उठा कर----आसमान से पूछना चाहती हूं---मांगना चाहती
हूं---
बस, तू दो आंखे सबको दे----जो खूबसूरती देख सकें,बे-शक---खूबसूरत
आंखे ना दे.
ये सब खूब्सूरतियाँ कहाँ दिखाई देती हैं जूनून के आगे ...
ReplyDeleteनशा होता है ताकत का जो इंसान को जकड़ लेता है पतली सी जंजीर में ...
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteरचना अच्छी लगी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteनई पोस्ट : प्रतीक चिन्ह कितने पवित्र