Sunday 18 May 2014

स्मृतियों के भोजपत्रों पर----मातृत्व के फूल





प्रिय राजीव,
इतने वर्ष मुट्ठी से यूं सरक गये कि मुट्ठी को देखने का साहस नहीं हुआ,
सोचती हूं ,इतना लंबा वक्त रेत की नाईं कहां सरक गया!!!
यूं तो मैं तुम्हारी मां हूं,परंतु कभी-कभी ’मां’ शब्द बडा ही कन्फूजन वाला हो जाता है---मां,मां,मां----
जितनी बार कहो,हर बार अलग-अलग रूप में आकर सामने खडा हो जाता है.
मां यशोदा कान्हा की मां नहीं थी,धाती थीं,फिर भी उन्होंने जन्मदात्री से बडा स्थान पा लिया.
इसी प्रकार,छत्रपति शिवाजी की मां,जीजाबाई,जिन्होंने ’मा’ शब्द को अलग रूप से परिभाषित किया.
एक मां, कोमलता की सीमा को लांघ गयी तो दूसरी ने कठोरता की अभेद किलेबंदी की.
मैं समझती हूं ---’मां’ तो केवल ’मां’ होती है,इतनी विराट कि जैसे बाल कृष्ण ने अपने खुले मुख में,पूरी सृष्टि ही दिखा दी हो!!!
’मां’ की सार्थकता को ढूंढा नहीं जा सकता ना ही सिद्ध किया जा सकता है,ना ही उसकी सार्थकता के सामने प्रश्न चिन्ह लगाए जा सकते हैं.
मैं, आज भी उन क्षणों की व्याकुलता को,उतनी ही व्याकुलता से महसूस कर पा रही हूं,जितना कि करीब ४०-४५ वर्ष बाद.
घटना सन १९७२ की है,हम लोग कुछ समय पूर्व ही आगरा से दिल्ली शिफ्ट हुए थे.प्रगति मैदान में पहली बार एशियाड मेला लगा हुआ था.वहां जापान की टोय ट्रेन लगाई हुई थी जो बच्चों के लिये एक बहुत बडा आर्कषण था.
किसी लापरवाही के कारण,तुम ट्रेन से उतर कर गलत दिशा की ओर चले गये और हम लोग दूसरी ओर तुम्हारा इंतजार करते रहे.
कुछ देर इंतजार के बाद,जब तुम कहीं नजर नहीं आये तो मैं व्यकुल हो उठी और अपने को रोक नहीं पाई,तभी अंतर्मन में एक शंका ने जन्म लिया और मेरा मन संशकित हो उठा.
अचानक,कोई एक ऐसी शक्ति थी, जो मुझे उस ओर लेकर जा रही थी जिस ओर तुम रोते हुए,लोगों की भीड में ओझल होते जा रहे थे.
एक ऐसी शक्ति अवश्य होती है या कि एक डोर जो मां को उसके बच्चे से जोडती है.
उस क्षण जो व्याकुलता,बैचेनी और ना जाने कैसी-कैसी शंकाएं नित-पल जन्म ले रहीं थीं----लगता था मेरे आस्तित्व का एक अंश मुझसे कट रहा है ,और---दूर हो रहा है.
वो नीले रंग की जेकेट ,सही मायने में उसका रंग रोयल-ब्लू कहा जा सकता है,जो तुम उस समय पहने थे,वो रंग आज भी हजारों रंगों में से अलग से पहचान सकती हूं.
तुम्हारा---,मम्मी-मम्मी,कहते हुए---भीड में ओझल होते जाना---वो पुकार--- आज भी मेरे कानों में गूंजती रहती है---जब भी तुम भावात्मक डोर से मुझसे छिटकने लगते हो-----
इसके बाद,कितनी बार ऐसे क्षण आये---रातॊ की नींद चली गई,खाना बेस्वाद हो गया---एक कोशिश---कि जो कुछ भी मेरा है, वह तुम्हारा हो जाय और तुम सुकून में आ जाओ----कहीं खो ना जाओ----
इस ,मां, की अभिव्यक्ति कुछ अलग जरूर है----लेकिन, अनुभूति तो केवल एक ही है, जो सिर्फ एक मां की हो सकती है.
मेरा मानना है,मां की अपनी अभिव्यक्ति जो उसकी जन्मदात्री के रूप में होती है---जो उसके आस्तिव के बीज में विद्धमान है,वह कभी भी उससे टूटना नहीं चाहती है, क्योंकि वही उसका पूर्णता है.
उस घटना ने, दो स्मृतियां मेरे मानस-पटल पर ऐसे अंकित कर दी हैं, जैसे कि किसी शिला पर छपे दो पद-चिन्ह----एक,तुम्हारी जेकेट का रायल-ब्लू रंग और दूसरा ’मम्मी-मम्मी’ की दूर जाती तुम्हारी आवाज------
                                        तुम्हारी मम्मी

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-05-2014) को "मिलेगा सम्मान देख लेना" (चर्चा मंच-1617) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद,आपका प्रोत्साहन,मुझे सदैव सकारत्मक बनाता है.

      Delete
  2. समय के साथ साथ यादें किसी चीज़ से जुड जाती हैं ... और मानस पटल पर रहती हैं हमेशा ... फिर एक माँ की स्मृतियाँ तो कभी पुरानी होती ही नहीं ... माँ का रिश्ता जिस भी रूप में देखा जाए ... एहसास वाही रहता है प्रेम का ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. नासवा जी,
      सादर आभार,आपका मेरे ब्लोग पर नियमित उपस्थित होना,मेरे लिये,एक प्रकाश-पुंज है---जो---आकाश में पु््च्छल तारे की नाईं किस ओर से आता है---किस ओर ओझल हो जाता है---एक किरण बिखेरता हुआ.

      Delete
  3. उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)

    ReplyDelete
  4. कुछ सोच नहीँ पा रहा हूँ कि लिखूँ क्या? लग रहा है कि महादेवी वर्मा जी के कालजयी रचनाओँ की समीक्षा एक शिशु मेँ पढ़ने वाले विद्यार्थी से करायी जाए, सजीव चित्रण। शायद ही कोई एसा हो जो पढ़ कर बिन रोये चला जाए।

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय अभिषेक,
      आपने जो कहा,दिल की गहराइयों से कहा,आभार और प्यार भी.
      कभी-कभी ऐसा भी होता है--चुप कराने वाला भी रोने लगता है.इस संदर्भ में प्रेमचन्द्र की एक कहानी याद आ रही है,ईदगाह---शायद आपने पढी भी हो.
      दादी-पोते दौनों एक दूसरे को चुप कराते-कराते रोते चले जाते हैं.दुबारा पढियेगा.मेरी आज की पोस्ट पर भी आइये--ओशो का महासागर,डुबकी लगाइयेगा.शुभकामनाएं.

      Delete
  5. पुनः शब्दातीत.....

    ReplyDelete