अस्सी के दशक में,दूरदर्शन पर एक सीरियल
प्रसारित हो था---हम लोग---
उस समय के निम्न मध्यवर्गीय को प्रितिबिंबित
करता था यह सीरियल.चूंकि,
उस समय
एकमात्र चैनल था—दूरदर्शन,और जनसाधरण के मनोरंजन के लिये
एकमात्र विकल्प—इसलिये इने-गिने कार्यक्रमों को
बहुत ही धार्मिक भावना से
देखा-सुना जाता
था,दिनचर्या इन निर्धारित कार्यक्रमों के अनुरूप चलती थी.
कृषिदर्शन,चित्रहार,हम लोग,(उन्हीं दिनों ’तमस’,’चाण्यक’,जैसे कालजयी
सीरियल
भी प्रसारित हुए)
आदि बहुचर्चित कार्यक्रम प्रसारित होते थे.सप्ताहांत,उस समय
की बहुचर्चित
फिल्म का प्रसारण सभी मध्यवर्गीय समाज को,एक सूत्र में बांधे
रखता था.जिनके
यहां टेलीवीजन सेट नहीं हुआ करते थे,वे पडोस में समाहित
हो जाते थे,बगैर
किसी ओढी गई ओपचारिकता के साथ.
मैं, बात कर रही
थी----’कहां गये वो बाल’---इस वाक्य की प्रतिद्ध्वनि,मुझे
सुनाई दे
रही----’हम लोग’----’कहां गये वो लोग’—अतः,मैं थोड सा भटक गई,
चर्चा से.
कल,एक
महिला-प्रधान कार्यक्रम में भाग लेने का सुअवसर मिला---होली का
अवसर था,सो
कार्यक्रम का मुख्य एजेंडा होली-मिलन था.
मंच पर,गणमान्य
अथिति आसीन थे,जिनमें हमारे शहर की माननीय मेयर भी
थीं,जिनकी
अद्ध्यक्षता में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया.
जिस समय मैं
पहुंची,कार्यक्रम चल रहा था,मंच पर आसीन सौंदर्य-एक्सपर्ट,सौंदर्य
से संबन्धित
प्रश्नों के उत्तर-समाधान दे रहीं थीं,और प्रश्नकर्ताओं की समस्याओं
(निःसंदेह,सौंदर्य
संबन्धित) को शांत करने का प्रयास कर रहीं थीं.
जैसा कि, हम सभी
जानते हैं,सौंदर्य से संबन्धित अधिकतर विग्यापन,बालों व स्किन
से सम्बन्धित होते
हैं---लगता है सारी सुंदरता,केवल इन दो आयामों पर आकर,ठहर
गई
है----शेम्पू,स्किन क्रीम, सन क्रीम,मास्चराइजर,कंडीशनर,हेअर कलर—डाई आदि,
छा गयें हैं,वरन
यूं कहिये हमें जकड लिया है इन म्रृगमरीचओं ने.
सौंदर्य के बाजारों
में.सेकडों कंपनियां,सिरफुट्टवल कर रहीं हैं,सिर उनके फूट रहें है,
और,जेबें हमारी
ढीली हो रहीं हैं,सिर के बाल दिनों दिन कम होते जा रहें हैं,बालों की
स्वाभाविक चमक,
हेअरडाई की भेंट चढ रही है.जिनके बाल लंबें हैं, वे भी उन्हें कतरवा
रही हैं.
बालों की स्वाभाविक
लहरें,जिन्हें हम कभी घुंघराले बाल कहा करते थे---गरम चीमटों से
नारियल की जटाओं
सी,सीधी-सतर हो गए हैं---सीरियलों में,हर एक महिला कलाकार के
बाल इसी स्टाइल में
नजर आ रहें हैं—सब स्टीरिओटाइप हो गएं हैं.
कहां गईं वो विविधताएं---जहां
विविधताएं नहीं,वहां सौंदर्य नहीं,जैसे हर रोज खिचडी
खा रहे
हैं---हां,कभी-कभी खिचडी भी अच्छी लगती है’
यह एकरसता नकली
फूंलों सी लगती है,जहां सुगंध नहीं है,रंगों का टोटा है.
अब,बालों की गुंथी
चोटियां नजर नहीं आती हैं,जिन्हें गूंथने-खोलने में एक अलग ही
आनंद था---जब लंबे
बालों की गूंथें खुलती थीं तो,खुले बालों की चमकती लहरें हवा में
लहराने लगती थीं.
मुझे याद है ,बालों
को हफ्ते-दस दिन में ही धोया जाता था,पूरे दिन का शगल था.
मुलतानी
मिट्टी,दही,बेसन आदि का प्रयोग होता था,जब धुले बाल सूखते थे,तो चेहरा
निखरा-निखरा लगता
था.
इस संस्मरण से याद
आया--- एक कालजई रचना के विषय में---शायद आप में से
कई महानुभावों ने
उस रचना को पढा भी हो---’उसने कहा था’. इस कहानी की नाइका
दस-बारह वर्ष की बालिका ,खुले बाल,बालों को धोने के लिये
दही लेने जाती है जहां
उस हम-उम्र लडके से मुलाकात होती है----जिसने कहा था---तेरी
कुडमई हो गई—और
जिन्होंने पढा है,,आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है.
सूखते ही बालों की मांगों मे उंगलियों से सरसों या नारियल
का तैल,हलकी-हलकी मालिश
के साथ डाला जाता था.तैल में डली कपूर की गोलियां
मन-मस्तिष्क को शीतलता प्रदान
करती जाती थीं.
परिवार की स्त्रियों को जोडने का,यह खास शगल था,जहां बातों-बतों
में,बालों की गूंथें
भी खुलती थीं और मन की गुंत्थियां भी.
और फिर, बालों की लंबी-लंबी गूंथियां गुंथ जाती
थीं,बच्चियों की गूंथों में लाल-हरे फूल
टंक जाते थे,सुहागिनों की चौडी-चौडी मांगों
में,सुर्ख-सिंदूर,चौडे-ललाट पर गोल बडी सी
सिंदूरी बिंदी-----कहानी लंबी है,लंबे बालों की.
कितना स्वाभाविक सौंदर्य था----
दूरदराज गांवो व कस्बों में,क्रीम या सनस्क्रीन का इस्तेमाल
नहीं होता था---नहाए-धोए
सरसों का या नारियला का तैल हाथ-पैरों में लगा लिया,वही
तैलीय हथेलियों को,चेहरों
पर रगड लिया या मक्खन निकालते समय,मक्खन से सिक्त हथेलियों
को हाथों-पैरों
और चेहरों पर लगा लिया,मालिश कर ली.स्किन समस्याएं,सन-बर्न
जैसी समस्याएं देखी
ही नहीं जाती थीं----हां उम्र के तकाजे उस समय भी थे जो आज
भी है.फर्क इतना था
पहले वे स्वीकारे जाते थे,आज उन से हठ किये जाते हैं.
मेरे विचार से---हर बाल की,हर खाल की,अपनी-अपनी कहानी
है---जो स्वाभाविक है,
निज है,वही खूबसूरती है---जो खूबसूरती है---वही प्रकृतिक
है,और जो प्राकृतिक है-----
वही सुंदर है.
समय के साथ ही हमारा रहन-सहन आज के चकाचौंध से प्रभावित है.
ReplyDeleteआप भी कहां पुराने जमाने का सौंदर्य ले बैठी? जिसमें अधिक से अधिक पैसा खर्च हो वह होता है सौंदर्य प्रसाधन। शादियों में देखा नहीं, दुल्हन और आजकल तो दूल्हा भी सारा दिन पार्लर पर ही बैठे रहते हैं और आते है जब लोग कहते हैं कि यह क्या बन्दर बन आए?
ReplyDeleteवक्त के साथ सब कुछ बदल गया, लोग भी शौक भी!
ReplyDeleteविविध आयाम समेटे आपकी पोस्ट .... हम लोग से शुरू ओते होते ... रोज मर्रा के जीवन में उतरती हुई ...
ReplyDeletebadalate privesh ak darshan mila ........bahut achchhi post Urmila ji .....sadar aabhar.
ReplyDeleteन समय रहा, न ही धैर्य, फ़ैशन का सहारा लेकर सबने ही बाल छोटे करा लिये।
ReplyDeletehummmmm!!!!!!! Nice thought !!!!!!!!
ReplyDeleteSach me ...Kitna kuchh badal gya hai samay ke saath....
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