मैं---एक खारा समुंदर बन जाऊं
क्या हर्ज़ है------गर
कोख से कब्र तलक
आंसुओं का---
तटविहीन समुंदर---
समा जाए,मेरे समुंदर में
आंसुओं की कोख में,तू---
जीती रही,मरती
रही---
वहां भी,स्याह
अंधेरे थे
बस,मां की, सहमी
सांसों के घेरे थे
आंख बंद थीं,मुट्ठियां भिंची हुईं
तू,हर एक सांस को, जीती रही
पता नहीं, एक सांस गई तो
दूसरी, लौटेगी भी या नहीं
फिर भी, जीने की
ललक लिये
नौ-मासी अंधेरों
में, भटकती रही
बस,मां के लहू की
तपिश----
दे रही थी,एक
आस,और जीती रही
वो,तेरा प्रारब्ध था---
जो,चुकाना था,तुझे
किलकारियों के बीच
चींखों को भी,पीना था(तुझे)
बढ तो रही थी,तू---
जीवन की डगर पर
चल तो रही
थी,सहम-सहम
कांधों पर,उपेक्षाओं
की,पोटली लिए
जो,दिनों-दिन---
हो रही और भी भारी
कि,कांधों से जुडे बाजू
और भी, झुकते चले गये
औरों के फैसलों
पर---
चुननी थीं,अपनी
मंजलें
चलना था,उन रास्तों पर
जो,तेरे नहीं
थे---
एक मर्यादा को समेटे
आंखें झुकाए----
एक चौखट को,पार कर
एक और चादर,मर्यादा की,तूने ओढ ली
फिर,स्वम तेरी
कोख
स्पंदित हुई-----एक
दिन
हाथ रख कोख पर
तू,आनंदित हुई---रोमांचित
हुई
हर-एक पल---
नौ माह का----
पुनःजन्म दे गया,तुझे
तिरोहित होती रहीं,उपेक्षाएं
कि, मैं ही---
इस जीवन की,
सूत्रधार हूं
हर पाप-अहंकार
को---
धरा की तरह----
साहस है,सीने पर
धर,जीने का
कि,
तुम, कितना भी रोंदों
हर विद्ध्वंस की चोट को
ओढने का,साहस रखता है
आस्तित्व----मेरा
कि,
चुनौतियों की
कोख में ही
जीवन,स्पंदित
हुआ---
पल्लवित
हुआ,भविष्य-बीज
और,सार्थक
किया,जीवन को(मैंने)
किंतु,
वह तो तेरा प्रारब्ध था
धरा की नाईं----
कि,उपेक्षाओं-तले,रोंदे जांएगे
नित,अहम तेरे आस्तित्व के
और फिर,
जिस स्पंदन को---
थामा था,अपनी कोख
में
जिन नन्हीं हथेलियों को
होंठों से चूमा
था,तूने
जिन, नन्हें कदमों की आहटें
कभी,पूरी नहीं होने देती थीं
नींदें तेरी-----
जो थीं---हर-दम,अधूरी
उसके,जगने-सोने में
ही
तेरी पूरी होती थीं,परिभाषाएं
जिन आंखों के,हर-एक
सपने के लिये
तूने,हर-एक स्वप्न
अपने,ध्वस्त किये(हर-एक-पल)
उसके आंसुओं के विष को भी---
धारण किये,अपने कंठ में(नीलकंठ बन)
उसके सपनों की लडियां—
टांकटी रही,नित,अपने जर्जर आस्तिव पर
पर,
वो
लडियां----अब,बिखर गईं हैं
वो मोती---मुडे
सिर,चिथडों में लिपटे
निरर्थक उम्मीदों की
तरह,
बिखर रहे हैं,वृंदावन की
वीथियों में
अब,
उपेक्षाओं की पोटली
और भी, भारी हो गई है
क्योंकि,उसमें कुछ दुत्कारों के
बोझ भी--- शामिल हो गये हैं
चूंकि,
यह तेरा
प्रारब्ध था---
धरा की
नाईं---
तू,नित-रोज,
रौंदी जाएगी
चिर-मृत्यु
को समेटे हुए
जीवन को,सार्थक करती जाएगी
मैं-------खारा समुंदर बन जाऊं
क्या हर्ज़ है----गर
कोख से कब्र तलक
आंसुओं का,तटविहीन समुंदर
समा जाए,मेरे समुंदर में
क्या हर्ज़ है-----
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (30-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
वाह भई.
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत गहरी पंक्तियाँ..सागर सी
ReplyDeleteवाह बेहद सुन्दर नज़ारा है, समंदर ही जरा खारा है. बेहद सुन्दर पंक्तियाँ आदरेया हार्दिक बधाई स्वीकारें.
ReplyDeletegahan abhivyakti ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
ReplyDeleteपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसास की अभिव्यक्ति
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बहुत ही खूबसूरत एहसास की प्रस्तुतीकरण.
ReplyDeletesaagar ki in gaharaiyon me maine stri ke dard ko mahsoos kiya........!
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteनारी जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को शब्दों का जामा पहनाया है ...
ReplyDeleteकभी कभी लगता है शिव के बाद का विश बस नारी ने ही पीया है ... अर्थपूर्ण रचना ...
वो,तेरा प्रारब्ध था---
ReplyDeleteजो,चुकाना था,तुझे
किलकारियों के बीच
चींखों को भी,पीना था(तुझे)bahut badhiya .....