आज
तक लाइव—हिंदी न्यूज चेनल पर,अपरांहान,९.४.२०१३ को प्रसारित एक
क्राइम-रिपोर्ट,जिसका
प्रसारण, नाट्यरूपांतरन के रूप में किया जा रहा था,
जो
एक सत्य घटना पर आधारित था----घटना का संक्षिप्त विवरण----उत्तर
प्रदेश
के गोंडा जिले के एक गांव में हुई घटना,जो १२.३.१९८२ को घटित हुई.
उस
गांव के एक पुलिस अफ़सर की,उनके ही सहयोगी पुलिस अफ़सर के द्वारा गोली मार कर हत्या
कर दी गई,साथ ही उनके परिवार के १२ सदस्यों को भी
फ़र्ज़ी
एनकाउंटर का जामा पहना कर,गोलियों से भून दिया गया.
(हो
सकता है—दिये गये विवरण में कुछ विवरण तथ्यों के मुताबिक न हों.
कृपया
क्षमा करें,क्योंकि,इस पोस्ट को लिखने का मेरा उद्वेश्य,किसी तथ्य का
उजागर
करना नहीं है,वरन,इस घटना में निहित मानवीय पक्ष को देखना है.)
यह
संक्षिप्त विवरण है,उस अमानवीय चरित्र का जो छल-कपट,द्वेष-विद्वेषव
आदि
नकारात्मक मानवीय चरित्र के वो काले पक्ष हैं, जिन्हें कोई भी पूर्णिमा
प्रकाशित
नहीं कर सकती है.
ऐसी
घटनाएं,हम नित्य, अपने आस-पास होते देखते व सुनते रहते हैं,और हममें से कुछ ऐसे भी
हैं जो स्वम खुद ऐसी नकारत्मकता का शिकार भी होते होगें.
इन
नकारत्मकता की फसल इतनी कटीली होती है,कि कोई और विषाक्त कांटा,उतनी पीडा नहीं
देता है,जितनी पीडा इन कांटों से मिलती है.
जिन
पुलिस अफ़सर का कत्ल हुआ—उस समय उनकी निःसहाय विधवा अपनी दो मासूम बच्चियों के
साथ,उस वैधव्य की पथरीली जमीन को,अपने मातॄत्व के दूध से सींच कर, उन बच्चियों के
शैशव को कैसे सभांला होगा---उसको कहने के लिये शब्द पर्याप्त नहीं हैं,बस मानवीय
आंसू,जो बिना छल-दिखावे के,अपने-आप गिर जांय—ह्रुदय से लेकर आत्मा तक निचुड
जाय---उन दो बूंदों में---शायद कह सकें
उन
दो बच्चियों ने भी,उस नकारत्मकता को ढोते हुए---जिसमें उनका शैशव, बचपन,यौवन के
मधुर स्वप्न स्वाहा हो गये होंगे—उस राख को मुट्ठी में बांधे हुए,प्रारब्ध को
स्वीकार करते हुए---उन कांटों पर चलते हुए—हर-पल,हर-क्षण
उस
दर्द को जीती रहीं---और माता-पिता के दाहित शरीरों से उठी राख—में उन स्वप्नों को
सिंचित करती रहीं होंगी—सकारात्मकता के जल से---कि वो निर्जीव राख भी कह उठी
होगी----आओ,कुछ बीज अपने भविष्य के मुझ में रोप दो----निःसंदेह---फूलों को शाखों
पर आना ही होगा---जो पीडा,जो अमानवीयता तुमने पी है---वो इन पुष्पों की महक व मधु
से सिक्त हो जाएंगी.
मैं---नमन
करती हूं---उस मानवीयता पर---जिसने इन दो बच्चियों(जो बहनें हैं)
ने
अपने संघर्षों,दृढ निश्चय व जीवन के प्रति सकारत्मक दृष्टिकोंण से,अपने जीवन के
हर-पल.हर-क्षण को सिंचित किया----
साथ
ही,इस देश की लचर न्याय-प्रक्रिया को धता कर,अपने अधिकारित न्यायिक अधिकार को बलि
होने से बचा लिया.
अंततः,मेरी
शुभकामनाएं हैं उन बे-मिसाल बच्च्यों के लिये,पीडित परिवार के लिये---और,आंकाक्षा
है---कि अन्याय के प्रति झुकना न हो---स्वम से इतना लेने की क्षमता, ईश्वर हम सब
को दे----कि,जीवन में नकारत्मकता को भस्म कर सकें----उस राख में,भविष्य के लिये
पुष्प महका सकें.
आंए----जीवन
को ढूंढने चले-----
,
machini yug men jivn kahin kho gaya hai ...
ReplyDelete'आए...जीवन को ढूंढने चले...' लेख में सकारात्मक और आशावादी विचारों का लेखन है। जीवन के भीतर हजारों हादसे होते है, कुछ मानव निर्मित कुछ प्राकृतिक पर उनसे हारे बिना जीवन को ढूंढना बहुत जरूरी है। अच्छा लेख। बधाई।drvtshinde.blogspot.com
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट...वाकई ऐसे में कितना असमर्थ महसूस करते हैं अपने आपको...बस उनकी जीजिविषा को नमन कर सक्रते है ...और पूर्ण ह्रदय से करते हैं !!!!
ReplyDeleteआशा का दीप मन में जलते रहना चाहिए .. सकारात्कामता भी बनी रहनी चाहिए ... इसके लिए परिवार ओर समाज का दायित्व भी है ...
ReplyDeleteसार्थक लेखन ...
सार्थक और सुन्दर पोस्ट |
ReplyDeleteसच में दोनों ने दुगने दृढ़निश्चय से स्वयं को सिद्ध कर दिया...
ReplyDeleteबढिया, क्या कहने
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट
बहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति,आभार.
ReplyDeleteनकारत्मकता की फसल इतनी कटीली होती है,कि कोई और विषाक्त कांटा,उतनी पीडा नहीं देता है,जितनी पीडा इन कांटों से मिलती है.
ReplyDeleteअनुपम !!!!
सार्थक लेखन उर्मिला जी...कुछ ओर नहीं कह पा रही हूँ....
ReplyDeleteधन्यवाद...