अकेली थी—नितांत नहीं?
अंग्रेजी में—इन दो शब्दों को बहुत खूबसूरती से
अलग कर के जोडा गया है,
Aloneness
and Lonaliness.
आइये चलते हैं—नदी के इन दो किनारों के बीच और
बह निकलते हैं-- यादों के दरिया में—शब्दों की पतवार लिये—यही है—अपने अकेलेपन(अलोन्नेस)
को वक्त की ठंडी-ठंडी हवा के झोंको में, जीवन के कुछ पलों को छोड कर,जो उनीदे से हो
गये हैं—नोकाविहार का आनंद लिया जाय.
बार्बीडोल—को ७०-८० के दशक में सुना करते थे—हालांकि
कभी खरीदा नहीं,कारण पहुंच से दूर थी—अमेरिका की दूरी की तरह—और बेटी ने भी कभी
जिद नहीं की—वरना कुछ ना कुछ करते जरूर.
हमारी बारबी डोल—बात करीब आधी दशक पुरानी तो है—परंतु
आज भी यादों के झरोखों से उसे देख ही लेते हैं.
पुराने सूती कपडों की तलाश (अब निहायत सूती कपडे
नहीं मिलते),उन्हें धोना-तहों में रखना,छो्टी-छोटी रंगीन चीजों की तलाश,दुपहरी भर—कि
यह बिंदी के रूप में ठीक रहेगी,गहनों में फिट हो जायेगी—वगैरह-वगैरह—इतनी
क्रियेटिविटी कि—भानुमति का कुनुबा कहीं ना कहीं फिट हो ही जाता था.
दोपहर होने का इंतजार और उससे भी ज्यादा इंतजार
घर के लोगों के सोने का.बार-बार झांक कर देखना कि मैदान साफ है या नहीं.
और सांस में सांस आ जाती थी—जब घर में सन्नाटा
पसर जाता था.
वो एक सृजन था—प्रतीत होता था कि हमने इन
नन्हें हाथों से वही गढ दिया हो जो कि ईश्वर ने गढा हो.
गढना ही नही—उसे सत्य-शिव-सुंदर की संपूर्णता
की चुनरी उढाते थे—तो यकीन मानिये—कृतकार से कम अपने आप को नहीं आंकते थे.
आज—देखिये नये शब्दों के जन्म हो रहे हैं—उनके
प्रचार-बहस-टीका-टिप्पणियों के मरुस्थल में जीवन की कृतिका कहां खो गयी—कहां खो
गयी वह कूची—जो जन्म से ही हमारे पास होती है—हमारी उंगलियों की पोरों में—कहां गए
वो रंग—जो कल्पनाओं के इंद्रधनुष से बिखरते थे—छिटकते थे??
जरा गौर करने की जरूरत है??
पुनःश्चय: हमारी बुआ का एक हुनर याद आता है—एक
धातु जो पीतल के बरतनों की कलई के लिये प्रयुक्त होता था—उसे वे मांग लेती
थीं,उससे जो बरतनों पर कलई करने आता था—उस धातु को पिघला कर ऐसे ही जमीन पर छिडक
देती थीं—और रेन्डमली—विभिन्न आकार में—कुछ ना कुछ बन जाता था—जो हमारी कलपनाओं
में गढ जाते थे, निकल कर आते थे—हमारी बारबीडोल के ईयररिंग्स,अंगूठी,नेकलेस,कंगन,झूमर,हसुली,कंगन----.
और फिर शुरू हो जाती थी---बारबी की विवाह की
तैयारी.
बात हम ओशो की करें—कहानियां निकाल कर
लाएं,शब्दों में उन्हें कहें या सुनाएं—
ओशो ने कहा है—हम सब भी एक कृतकार ही हैं—जो अपनी
कला के हुनर को भूल बैठे हैं,अपनी कूची को तोड बैठे हैं—कल्पनाओं के इंद्रधनुषी
रंगों में वृकृतियों की कीचड घोल रहे हैं—अपनी सम्भावनाओं के अ्नंत को खुद ही समेट
कर कैद हो रहें.
खुशी और समपन्न्ताओं में भेद करना भूल गये हैं.
और भटक ही रहे हैं—खुद को ही नहीं मालूम??
ओशो इंतजार में—हमारे लौटने की प्रतीक्षा में
हैं.
हमें वापसी करनी ही होगी.
ओशो—जो कभी जन्में नही,जिनकी कभी म्रुत्यु नहीं
हुई—इस ग्रह की एक यात्रा पर, कुछ समय के लिये थे.
आएं—ओशो को देखें—उनको, अपनी कृतियों में—अपनी
कल्पनाओं की कूचियों में—जो सुखों के इंद्रधनुषी रंगों से तर हो,सरोबार हो!!!
पढिये जरूर—आनंद आएगा.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.03.2016) को "एक फौजी की होली " (चर्चा अंक-2278)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeletedhanyavaad--wld be there.
ReplyDeleteओशो का एहसास और यादों के झरोखे से गुज़रता जीवन ... फॉर लौटना ... पर कहाँ ... यहीं ... या किसी दुसरे सफ़र को ... सब माया है उसी की ... ओशो कहो, कृष्ण कहो ...
ReplyDeleteछायावाद की झलक दिखाई दी बधाई
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