एक प्रश्न,
काम-केन्द्रित-प्रेम व प्रेम-क्रेन्द्रित-काम को परिभाषित करें?
ओशो कहते हैं--
प्रेम को काम से हट कर परिभाषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि,काम
ही जीवन का स्पंदन है—श्वांस है—क्योंकि जीवन का हर स्पंदन काम के बीज का प्रकट रूप
है.
इस सृष्टि का रोम-रोम ’का्म’ का परिणाम है—
कारण-परिणाम की यह श्रंखला निरंतर है—जब तक सृष्टि है.
अब प्रश्न है—कि काम और प्रेम में कौन पहले है?
कौन बाद में?
प्रश्न अद्भुत है—कैसे कहें—बीज पहले था कि वृक्ष?
अतः जो परिभाषित न हो सके—वही सत्य है,क्योंकि ’सत्य’, है और
नहीं में नहीं बंधता.
जब प्रेम होगा तो काम रूपी बीज से ही प्रगट होगा—जब काम होगा
तो प्रेम में ही फलित होगा.
दौनों ही—शहद की मिठास हैं—शहद है तो मिठास है—मिठास है तो शहद
ही है.
यह तो रही ओशो की बात—बात ओशो की है—जो सार्भौम है—कुछ भी अपवाद
नहीं है.
अब हम जीवन में ऐसी छुट-फुट घटनाओं से गुजरते हैं जहां इस सत्य
की आड में जीवन में दुर्गंध फैल रही है--- तब ओशो खडे मुस्कुराते हुए नजर आने ही लगते
हैं.
और उनकी इस मुस्कुराहट में शरारत होती है—जैसे कह रहे हों—कहा
था ना,पर सुना ही नहीं?
हम प्रेम को जागीरियत मान कर उस खुश्बू को हथेलियों में कैद
कर लेते हैं जो हो नहीं सकती---ह्थेलियों की लकीरों में से बहने लगेगी—
हम प्रेम को खुद के अहम को पोषित करने के लिये उस खुशबू को दुर्गंध
बना देते हैं और उस दुर्गंध से जीवन को महकाने की ना-काम कोशिश में उम्र गुजार देते
हैं.
हम प्रेम को अपनी खुशियों को खरीदने के सिक्के बना देते हैं.
और—काम को समझे बगैर प्रेम को समझना सम्भव नहीं—यह फिजियोलोजी
है,यह साइकोलोजी है,यह जीवन की वास्तविकता है—यही जीवन का अध्यात्म है.
दो व्यक्तित्व को साथ-साथ चलने से पहले खुद को उघाडना जरूरी
है,हम वास्तव में एक एनोटोमी हैं—उसके बाद ही ऊंचाइयों के शिखर.
ओशो—गर्भ-गृह में प्रवेष तभी संभव है जब मंदिर की ड्योढी को
पार किया जाय—पार किया जाय जैसे मंदिर में प्रवेष से पहले हम देहरी को छू कर माथे से
लगाते हैं—
यही भाव काम के प्रति हो तो उस प्रेम –रूपी- दिव्यता के दर्शन
होने ही हैं.
उद्धरित—ओशो-धारा से.
पुनःश्चय:
मेरे शहर की एक खबर,जो आज के दैनिक में प्रकाशित हुई—
एक मां ने अपने दो मासूमों की हत्या की और आत्म-हत्या की कोशिश
भी की.
कारण-- पति के प्रति शक-दुर्भावना का प्रतिउत्तर.
समझ से परे—प्रश्न अनुउत्तरित?
ऐसी ही घटनाएं जीवन में शूलों की तरह उपज रही हैं.
विवाह है—काम है—प्रेम कहां है???
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2016) को "प्रवर बन्धु नमस्ते! बनाओ मन को कोमल" (चर्चा अंक-2266) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत कुछ होता है जो पूरक होता है ... एक के बिना दुसरे का अस्तित्व नहीं होता ... प्रेम है तो है फिर क्यों कहाँ से कैसे ..... क्या सोचना ...
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