Friday 5 June 2015

Today, Im Sad.



जीवन यूं ही बिता देने के लिये नहीं है-
झेन भिक्षु—अपना प्रत्येक दिन स्वम अपने-आप से,जोर-जोर से यह कहते हुए ही शुरू करता था---’मास्टर,क्या तुम हो वहां?’
और स्वम ही उसका उत्तर भी दे देता था---’जी हां,श्रीमान मैं यहीं ही हूं’.
इस  एक उद्धरण के माध्यम से ओशो कहते हैं---
सजग,शांत,संतुलित बने रहो.
बात शुरू नहीं कर रही हूं-- कोई बहुत महान विचारक के महान विचार को पुनःस्थापित करने के लिये?
वरन,जब कभी भी हम सजग,शांत,संतुलित हो पाते हैं---और ऐसी घटना घटती है कभी ना कभी सब के जीवन में---तब हम शुरू होते हैं- अंत से,जीवन को म्रृत्यु के झरोखे से जीवन को खूबसूरती से देखने में समर्थ हो पाते हैं---अफसोस अक्सर देर हो ही जाती है?
ओशो आगे कहते हैं—जीवन यूं ही बिता देने के लिये नहीं है.
जीवन केवल सतह पर ही नहीं है.
वह केवल परिधि नहीं है.
जीवन का एक केंद्र भी है.
वह केंद्र—म्रुत्यु है.
सजग,संतुलित हो जाओ. ओशो,मनुष्य होने की कला से साभार.
सिकंदर के बारे में यह कहा जाता है—जब वह मरने जा रहा था तब उसने अपने दरबारियों से कहा,”जब तुम दौनों हाथों से पकड कर मेरे जनाजे को लेकर चलो तब मेरे दौनों हाथ शैया के बाहर लटका देना”.
दरबारियों न्र इसका कारण पूछा---तो सिकंदर ने उत्तर दिया—ताकि लोगों को पता चल सके कि मैं खाली हाथ संसार से जा रहा हूं”.”
कई बार सुनी-पढी गयी है,उक्त कथा.
लेकिन हम आदतन सत्य को भी कथा का रूप दे देते है—और कथावाचकों को सम्मानित करते रहते हैं---सत्यनारायन की कथायें वांचते-वांचते युग बीत गये और हम सत्य की ओट लिये खुद से ही नजरे चुराने की परम्परा बिठाने में नित परांगित होते चले जा रहें हैं.
हमारे अहमं हमारे घरों की दीवारों से भी ज्यादा कठोर हो रहे हैं और उन दीवारों के अंदर हमारी समस्त मानवीय कोमलतायें घुट कर धूल होकर हमारे ही आस्तित्व को धुंधला कर रहीं हैं---अपने-आप से भी मुखातिब होने में हम नाकाम हो रहे हैं---जानते हुए हमारे ही द्वारा बनाए ये अहम के खंडहर हमें दफनाने को आतुर हैं.
अखबारों में,टी.वी.चेनलों पर,आस-पास---एक अंतहीन बैचैनी क्यों व्याप्त है---सुविधाओं के बोझ तले सुकून दफ़न क्यों हो रहे हैं?
मन अक्सर व्यथित हो उठता है—कि क्यों कोई सुबह हवा के झोकों के शुरू नहीं होती,क्यों आंगनों में छोटी-छोटी चिडियां नहीं फुदकतीं---बेलों की महक,आम की बौराइयां---कौन ले कर चला गया---दे गया है ऊंची आवाजें,अपशब्दों की बौछारें,अपमानों के तोहफे---अहम के टीले--?
आज,सुबह-सुबह मन उदास है—क्यों?
पता नहीं,क्यूं??
Start from the End
Will start,really Beautifully.
Just see the Fall of the Tree
Watch the withering of the Pettles
Listen the Agony of the Warmth
Of the ruptured veins
Smell the crackes of the Soil
Count the Lives---
On the Filth of the Humanity
Touch the Tears---
Rolling down the innocent cheeks
Wounds,Breaks,Hurts
Of Friendsh---
Crackes on the walls of
Neighbourhood
Hatreds of Hunger,Disease,Unease
Heads---without Roofs
Feet on burning Roads
And a Shot into---
The Flying Wings of
Hopes and Aspirations
The falling leaves of Birth
In the thundering bolt
Of Death---
Just live—just a moment
In the night of Sobs,Cries and Sighes
And---
Out of Sinking Ship
Thousands of Hands
From the Watery Death
For, Vanishing Life.
                                    Just Start from The End.
Today, Im Sad.                                                     


5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-06-2015) को "विश्व पर्यावरण दिवस" (चर्चा अंक-1998) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    विश्व पर्यावरण दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. सुन्दर पोस्ट

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  3. सच इंसान बने रहना आज मुश्किल होता जा रहा है। . गंभीर चिंतन।

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  4. हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार ,बधाई. कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  5. Thanks to all the respected friends--who come on the mun ke-manke.

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