Saturday, 13 June 2015

तो फिर कहां जायेंगे हम???




अब तो, जमीं की तल्खियां
ये,कैसी हुकूमतें----
ये, कौन सी सियासतें---
अब,आसमां को भी चीरतीं
ये,कौन से बटवारे हैं
ये,सौदेबाजियां—
कौन से हकों की
जमीं के,बे-हिसाब छोर
समुंदरों के,बे-खौफ दायरे
गहरी-घटियों की गहराइयां
ऊंची-चोटियों की ऊंचाइयां
रोनके-शहरों की,रोनाकियां
मुर्दा-मरघटों की,मुर्दानियां
पूरे नहीं पडते----???
अब,गर्म-लहू भी
बर्फ हो रहे,बर्फानी से
दाह की आग को
बुझाने के लिये
अब,हिमालय भी दहन हो रहे???
कौन----?
रोकेगा भला अब,
उसको(हिमालय) को भी
पिघलने से---भला?
जमीं तो,रोज टुकडे-टुकडे
बंट रही---
सूनी होती गोदों से
जिंदा जिस्मों की
टूटती सांसो से
गुम होते---आज
अनाथों के—आज से
अधूरी-पीढियों की
अधूरी लकीरों से
और----??/
दहकते-गु्रूर---आ
आसमानों को भी
नंगा कर रहे—
जमीं भी---ओढे
चेथडे—आबरू के
ढूंढती फिर रही है
खोई हुई आबरू को
अपने ही आम्गनों में
जार-जार हुई,यह धरती
अपनों से—तार-तार हुई,यह जमीं
कि----
पूछती है---
क्या,इतना जरूरी है
धधकती गोलियां
लोहों की नालों से
आसमान से---
मिसायली बारिशें???
जिनके के लिये- चलती हैं
जिनके लिये-दागी जाती हैं
उनके ही वजूद—होकर
धुंआ-धुंआ----
शमशानों को उठाकर,जमीं से
खुद,बसा रहा हैं बस्तियां
आसमानों पर---
क्योंकि---
जमीं पट गयी है
मकबरों के खम्डहरों से
शमशानों से उठती राखों से
और--
बहता हुआ लहू—
जो, धुआं-धुआं,हो रहा
अब तो,जरूरत है
चाम्द पर जाने की
कम-से-कम—
उसकी खिडकी से देख लें—
कहां हैं---
लकीरें---
उन लकीरों को,जो
खींची थी हमने,
एक बार तो देख लें
अपनी ही करतूतों को
और---हो रहें,शर्मिम्दा
अपने ही बनाए,शमशानों पर
और---उन आखिरी-इबारतों पर,
लिखी हैं हमने उन पत्थरों पर
गर---
चांद पर,हम जा सके तो
घुप अम्धेरे में
नीली सी एक स्याह-बिंदी
जो सजी है—विस्तार के
ललाट पर---
देख पाएंगे जरूर???
और---
तब---
याद आएंगे बहु्त
कश्तियां-कागजी
चिपकी हुईं,नालों की ओट में
मुहब्बती-पर्चियां---
किसी के कोठे पर—
फेंकी हुई थी,और कहीं
स्वागती-वम्दरबारों से
विदाईए की शहनाइयां
ड्योढी पर रखे धानियारी-कलश को
सिंदूरी-अगूंठे के ठोकरें
याद आएंगी बहुत----???
नसीहतों के टोकरे
आशीशों के लिफाफे
इम्ताजार में होंगे कि,
साथ लेता जाय कोई,उन्हें???
याद आएंगे बहुत---???
वो काफिले,आखिरी मुकाम के
इम्तजार में----
चार कांधों के लिये
गुलमोहरी छांव तले
अमलतास के शोले बुझाते
चमेली के विरबे तले
मुहब्बतों की ठंडाइयां
याद आएंगी बहुत---???
बालों की बेलों में गुथी
बलों की बेलियां
गुलाबी-्चुभन---
दिलों के होती
आर-पार---
चार आंखो की जोडी-दो
दो-हाथों की जोडियां
और—हर-एक आंख
हर एक हाथ
कहता गजल
लिखता गजल
ताज के पत्थरों पर
पढता----गजल
हर-एक बाशिंदा इस जमीं का
मुमताज के चेहरे से उठाता,घूंघट
नूर का----
याद आयेगा बहुत--???
उप्फ़!!!
चांद भी छोटा पड जाएगा
जमीं की इबारतें—लिखने के लिये
फिर,कहां जाएंगे हम???
नहीं----
मंगल की जमीं
गरम बहुत है---अभी.

                 रात नींद में किसी ने कहा---धीरे से,चांद पर चलोगी?
                 मैंने घबराकर कहा---क्या कहा?
                 अभी तो मुझे जाने की जल्दी नहीं है.
                 नहीं—जीते-जी,उसने कहा.
                 तब,ठीक है—मैंने कहा.
                 और,मैं दुबारा सो गयी.
                 सुबह आठ बजे आंख खुली,सो लिखने बैठ गई.
नीली-स्याह सी बिंदी
घुप्प असीमित-अंधेरे में
विस्तार के ललाट पर
यही तो,मेरी जमीं है
दुल्हन—सरीखी---!!!

7 comments:

  1. एक एक शब्द अंतस को झकझोरता हुआ...एक एक प्रश्न ज़वाब के इंतज़ार में ...लाजवाब अभिव्यक्ति...

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  2. बहुत बढ़िया ..मन को छूती रचना

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  3. बहुत सी सुनहरी बातें याद रखने के लिए क्या हम रह भी पायेंगे इस माहोल में ...
    मन को झंझोड़ती है रचना ...

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  4. बहुत बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
    http://madan-saxena.blogspot.in/
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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन योग अब वैश्विक विरासत बन गया है में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  6. धन्यवाद,’और फिर कहां---’को आज की बुलेटिन,’योग अब वैशिक---" में शामिल करने के लिये.

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