ओशो---एक कहानी यूं कहते है
मैंने सुना है कि एक बहुत पुराना वृक्ष था.आकाश में सम्राट
की तरह उसके हाथ फैले हुए थे---फल आते थे ---फूल खिलते थे---जिन पर तितलियां उडती
थीं----एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलता था.उस बडे वृक्ष को उस छोटे बच्चे
से प्रेम हो गया.
( अहंकार हमेशा अपनों से बडों से समंध बनाना चाहता है.प्रेम
के लिये कोई छोटा या बडा नहीं है.)
वृक्ष बडा था ,उसकी डालियां ऊंची थीं,बच्चे के छोटे हाथ
उसकी डालिओं तक नहीं पहुंच पाते थे ताकि वह फल तोड सके.वृक्ष को उस बच्चे से प्रेम
था इसलिये उसके लिये वह नीचे झुकता ताकि वह फूल और फल तोड सके.
( प्रेम हमेशा झुकने को राजी है,अहंकार कभी भी झुकने को
राजी नहीं है.)
जब भी वह बच्चा उस पेड से कुछ भी तोडता वह वृक्ष बहुत खुश
होता.
( प्रेम जब भी कुछ देता है बहुत खुश होता है,अहंकार जब भी
कुछ लेता है बहुत खुश होता है.)
बच्चा बडा होने लगा,महत्कांक्षाएं बढने लगीं,और अब वह
कभी-कभी उस पेड की छांव तले आता और शीघ्र ही वापस लौट जाता.
लेकिन वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता---पुकारता आओ---आओ—
(प्रेम एक प्रतीक्षा है---एक अवेटनिंग)
जब कभी वह बच्चा (जो अब बडा हो गया था)नही आता तो वृक्ष
उदास हो जाता,
( प्रेम की एक उदासी है.)
आकांक्षाओं के साथ-साथ बच्चा (जो अब बडा हो गया था) भी बडा
होता गया.
वृक्ष उसको बुलाता रहा और वह कहता रहा---अब तुम्हारे पास
क्या है जो तुम मुझे दे सकते हो?
(अहंकार का एक प्रयोजन होता है,प्रेम निश्प्रयोजन है)
उस वृक्ष ने बहुत सोचा---अब और क्या दे सकता हूं---(क्योंकि
वह सब कुछ दे चुका था अब केवल वह अब बिना फूल व फल के रह गया था.)
और अब उस वृक्ष के प्रांण पीडित होने लगे कि वह आए---वह आए.
उसकी आवाज में यही गूंज गूंजने लगी---कि आ जाओ---.
बहुत दिनों बाद वह आया.वह प्रोढ हो गया था.
वृक्ष ने कहा---मेरे पासा आओ,मेरे आलिंगन में आओ---
उसने कहा---छोडो यह पागलपन की बातें,मुझे एक मकान बनाना
है,मकान दे सकते हो?
तुम मेरी शाखाओं को काट कर मकान बना ्लो---और वह कुल्हाडी
ले आया---
उस लडके ने पीछे लौट कर नहीं देखा.
वक्त गुजरता गया---वृक्ष अब ठूंठ रह गया था----फिर भी वह
उसकी राह देखता रहा.
बहुत दिन गुजर गये---वह आदमी अब बूढा हो गया था---और एक दिन
वापस लौट कर उस वृक्ष के नीचे आकर खडा हो गया---तुम बहुत दिनों बाद आये?
मुझे दूर देश जाना है,धन कमाने के लिये,क्या तुम मेरे लिये
कुछ कर सकते हो?
वृक्ष ने कहा---मुझे काट लो,मेरे इस ठूठ से नाव बन जाएगी
जिस पर बैठ कर दूर देश की यात्रा कर सकोगे.
लेकिन शीघ्र लौट आना और सकुशल लौट आना.
उसने वह वृक्ष काट डाला.
( क्योंकि अहंकार वहीं आता है जहां कुछा पा सके.)
ओशो आगे अपनी बात पूरी करते हैं---
मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ...उस वृक्ष ने मुझसे
कहा---मेरा मित्र अब तक नहीं आया,बडी पीडा होती है---एक खबर भर मुझे ला दो कि वह
स-कुशल है---.
जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाय और उस वृक्ष की शाखा अनंत तक फैल
जांय---तो पता चल जाय प्रेम क्या है---अगर प्रेम मेरी आंखों में ना दिखाई दे,मेरे
हाथों में ना दिखाई दे---जब मेरी आखों में दिखाई दे,मेरी हाथों में दिखाई देने
लगे----तो मैं कह सकता हूं यह प्रेम है.
(साभार—संभोग से समाधि की ओर,प्रवचन भारतीय विद्याभवन,मुम्बई,२८
अगस्त १९६८.)
पुःश्चय---
वृक्ष की यह कहानी शाश्वत है.सदियों से दुहराई जा रही है—पीढी
दर पीढी हस्तांतरित हो रही है और होती रहेगी.
प्रेम और अहंकार एक सत्य के दो चेहरे हैं.एक सीमा रेखा है
केवल बाल बराबर यदि उसे हम देख सकें तो---सीमाएं--- विहीन हो जांय, प्रेम के वृक्ष
ठूठ ना रह जाएंगे—आंखो में सिर्फ एक ही भाषा होगी---प्रेम की.
कुछ बे-वजह शब्द हमारी भाषा से विहीन हो जाएंगे,
एक आग्रह---प्रेम को वांचे---उसके इंद्रधनुष को बिखेरें.
मन
के-मनके
बहुत सुंदर. ओशो के दर्शन बहुत गहन होते हैं.
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (27-12-2014) को "वास्तविक भारत 'रत्नों' की पहचान जरुरी" (चर्चा अंक-1840) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ओशो के विचार बहुत ही उच्च दर्जे के है .बहुत सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteप्रेम ही बांचें, प्रेम ही लिखें और प्रेम ही जियें ...
ReplyDeleteपर ऐसा कहा हो पाता है ... अहंकार अपने से आगे कहाँ जाने देता है ...