Wednesday, 17 December 2014

कराह रहा है-----अपनी ही पौध पर


                                                          
मुस्कुराहटों की घाटियों में---

सरहदों की बाडें कटीली

उम्मीदों की चोटियों पर---

बरसती हैं---गो्लियां

ये फितरतें---

ये बेचेनियां---

खुद खोदती हैं—

कब्रें---अपनी ही

ये डरों के साये---

ये लालची---चाहतें

अपने ही ताबूतों में

ठोक रही हैं---

कीलियां

ये खुदा की इबारतें—

ये घंटियां---मंदिरों की

किसने लिखी हैं---

किसने टांगी हैं?

वो तो----

खुद ही बे-बस

बे-जार

बहा रहा है---आंसू

अपनी ही चीखों को

थामें---गले में

मस्जिदों से---दूर

मंदिरों के पिछवाडे

कराह रहा है---

अपनी ही पौध पर---

 

 

7 comments:

  1. अपनी ही चीखों को
    थामें---गले में
    मस्जिदों से---दूर
    मंदिरों के पिछवाडे
    कराह रहा है---
    अपनी ही पौध पर---
    कटु सत्य.
    नई पोस्ट : आदि ग्रंथों की ओर - दो शापों की टकराहट

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. क्या कहूँ...
    उम्मीदों की चोटियों पर---
    बरसती हैं---गो्लियां

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  4. जहाँ शैतानियत खुल कर खेलती है वहाँ मनुष्यता कराह कर रह जाती है !

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  5. Thanks,Pratibhaaji----not only Humanity but God too.

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  6. संवेदनशील। ।

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