मुस्कुराहटों की घाटियों में---
सरहदों की बाडें कटीली
उम्मीदों की चोटियों पर---
बरसती हैं---गो्लियां
ये फितरतें---
ये बेचेनियां---
खुद खोदती हैं—
कब्रें---अपनी ही
ये डरों के साये---
ये लालची---चाहतें
अपने ही ताबूतों में
ठोक रही हैं---
कीलियां
ये खुदा की इबारतें—
ये घंटियां---मंदिरों की
किसने लिखी हैं---
किसने टांगी हैं?
वो तो----
खुद ही बे-बस
बे-जार
बहा रहा है---आंसू
अपनी ही चीखों को
थामें---गले में
मस्जिदों से---दूर
मंदिरों के पिछवाडे
कराह रहा है---
अपनी ही पौध पर---
अपनी ही चीखों को
ReplyDeleteथामें---गले में
मस्जिदों से---दूर
मंदिरों के पिछवाडे
कराह रहा है---
अपनी ही पौध पर---
कटु सत्य.
नई पोस्ट : आदि ग्रंथों की ओर - दो शापों की टकराहट
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhanyavaad Shaastrijee.
ReplyDeleteक्या कहूँ...
ReplyDeleteउम्मीदों की चोटियों पर---
बरसती हैं---गो्लियां
जहाँ शैतानियत खुल कर खेलती है वहाँ मनुष्यता कराह कर रह जाती है !
ReplyDeleteThanks,Pratibhaaji----not only Humanity but God too.
ReplyDeleteसंवेदनशील। ।
ReplyDelete