ओशो---एक कहानी यूं कहते हैं.
मुझे एक घटना याद आ रही है.
एक फकीर अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था.घर से निक्ला
जैसे ही घो्डे पर सवार हुआ,उसका बचपन का मित्र सामने खडा हो गया.
फकीर ने अपने उस मित्र से कहा---दोस्त,तुम घर पर रुको मैं
शीघ्र ही अपने मित्र से मिल कर आता हूं फिर
हम तसल्ली से बैठेगें.
परंतु वह मित्र भी बहुत आतुर था उस मित्र(फकीर) से बातचीत
करने के लिए सो उसने साथ चलने के लिये आग्रह किया.
चूंकि लम्बे सफर से आया था इसलिये उसके कपडे मैले थे— उसने फकीर से कहा कि तुम कुछ समय के लिये अपने
कपडे दे दो ताकि मै तुम्हारे साथ चल सकूं.
और दोनों मित्र शहर के मित्र से मिलने चल पडे.
किसी सम्राट के द्वारा भेंट की गयी कीमती पोशाक में वह
मित्र किसी सम्राट से कम नहीं लग रहा था.
फकीर ने जब उस मित्र को उस पोशाक में अपने मित्र को देखा तो
ईर्षा से भर उठा. पछताने लगा अपनी मूर्खता पर.
मन को बार-बार समझाता---मैं एक फकीर---मुझे इन कोट-पगडी से
क्या लेना-देना---मै आत्मा-परमात्मा की खोज में निकला एक फकीर.
जितना मन को समझाता उतना ही उसका मन व्याकुल हो उठता.
पहले मित्र के घर पंहुचे--अपने मित्र का परिचय देने
लगा---यह मेरे मित्र आज ही इस शहर में पहुंचे हैं---बहुत प्यारे इंसान
है---आदि-आदि.
लेकिन मन में तो कोट और पगडी उन्हें बैचेन किये हुए थी सो
मुंह से निकल गया---मगर ये जो कपडे पहने हुए हैं वह मेरे हैं.
मित्र हैरान हुआ सो उन्होंने उससे माफी भी मांग ली.
दूसरे मित्र के यहां पहुंचे---रास्ते भर मन को पक्का करता
गया,फकीर कि कपडों की बात जबान तक नहीं लाऊंगा.
जैसे ही मित्र के दरवाजे तक पहुंचा---कोट-पगडी समाने ही लटक
रही थी---सो कहने लगा---मेरा क्या है,कपडे-लत्ते क्या किसी के होते हैं,यह तो सब
संसार है सब माया-जाल है.ये मेरे बचपन के मित्र हैं बहुत प्यारे इंसान हैं.ये
कपडे-लत्ते भी इन्हीं के हैं.
बाहर आकर मित्र से फिर क्षमा मांग ली.
(आखिर दृढ संकल्प किया ही क्यो जाता है?)
गये तीसरे मित्र के यहां.
फकीर ने बिलकुल ही अपनी सांसोम को बांध लिया---
कहा---कि अब कसम खाता हूं.,इन कपडों की बात ही नहीं उठानी
है.
संयमी बडे खतरनाक होते हैं.
मुठ्ठी जितनी जोर से बांधी जायगी उतनी ही जोर से खुलेगी भी.
मुठ्ठी चौबीस घंटे खुली रखी जा सकती है लेकिन बांध कर नहीं.
जो आज इस फकीर के साथ हो रहा है वह आज पूरी मनुष्य जाति के
साथ हो रहा है.
सब विषाक्त हो गया है.
पुनःश्चय---
इस कहानी को चुनने का मेरा आशय आज तार्किक है.
आये दिन गुजर रही हूं इन वाकयों के तंग-बदबूदार गलियों से—
मैं वही हूं जो पहले थी वही व्यवहार,वही खुलापन,वही लीक से
हट कर चलने की आदत या जीने की ललक---जो साथ है---और रोज ही उसे सींचती हूं उसे
धन्यवाद देती हूं—अनुगृहित हूं---उस आस्तित्व के प्रति---कि उसने मुझे मौके
दिये---दे रहा है---कि इस नियामत को भरपूर पी सकूं.
कितने प्रश्न-चिन्ह खिचते हैं---रोज पोंछ देती हूं.
क्योंकि—उत्तर नहीं होते ह्रर क्यों—कहां—किसके साथ के.
ये तूफान आज इतने विष्फोटक हो रहे हैं कि---शालीनता और
मर्यादा के रंगमहल की नींव को हिला रहे हैं.
ओशो---मै तुम्हें प्यार करने लगी हूं.
दो पंक्तियों के साथ साभार---संभोग से समाधि की ओर से.
हाथ बांधे खडे हैं---
आतुर हैं—मिलने को गले
नहीं जानते---
कितने रंग हैं
कितनी भाषाएं हैं
जो कोई छू भर दे हमें.
मन के-मनके
र
बहुत सुंदर आख्यान.इसका संदर्भ कहीं ओशो की किसी किताब में काफी पहले पढ़ा था.
ReplyDeleteनई पोस्ट : बंदिशें और भी हैं
सुन्दर प्रस्तुति...
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