Tuesday, 28 October 2014

स्मृतियों के अमलतास



खैर,जिंदगी का हिसाब तो नहीं लगाया जा सकता ना ही ऐसी कोशिश करनी चाहिये.
हां ,जिंदगी का ऐसा मोड भी आता है,जब पैर ठिठक जाते हैं---लगता है आगे जांय या पीछे मुड कर देखें.
आगे की राह कभी-कभी इतनी नितांत हो जाती है कि डर लगने लगता है,क्योंकि मनुष्य सदैव अगत्य से डरा है---उसकी सबसे बडी कमजोरी उसका अकेलापन है,परंतु इस अकेलेपन के दुरूह में भी उसे आगे ही बढना होता है और बढना भी चाहिये—जीवन ठहराव नहीं है.चरेति-चरेति---मनुष्य की नियति है.
तो,कभी-कभी पीछे लौट कर,छूटे हुए रास्तों से उन फूलों को चुन लेना चाहिये जिनकी खुशबुएं उनके मुरझाने के बाद भी हमारे आस्तित्व को महका जातीं हैं जैसे किताब के पन्नों में दबी गुलाब की पंखुरियां.
इन खुशबुओं के सहारे---निर्जन रास्ते भी महकने लगते हैं.
इस संदर्भ में---कोशिश कर रही हूं,उन फूलों को चुनने की.
आप भी ऐसी ही एक कोशिश करिये—मुझे यकीन है—महक जाएंगे.



हमारे विजयपाल मामा---
आज बैठी थी,कुछ आज के साये तो कुछ गुजरे गलीचे की गरमाहट में.
इधर पिछले दिनों काफ़ी गहरा पढ रही थी और विचार वजनी होते जा रहे थे सो सोचा क्यों ना हलका हो लिया जाय.
सत्य ही है---दूर खडी पांत समय की
          लगतीं हैं,इंद्र धनुष सी क्यों
          आज चांदनी भी-----
          लगती है---अंगारी-कांटों सी क्यों?
समय यूं फिसल जाता है रेत की नायी---कि?बहुत-बहुत शब्दों में अलंकरित किया जा सकता है---मैं तो बस इतना ही कह पार ही हूं—क्यों?
जीवन की आपा-धापी शास्वत है---वक्त बदलता है---पैमाने बदल जाते हैं,देखने-समझने के नजरिये बदल जाते है.
मां के असामायिक देहांत
के बाद हमारी देखभाल के लिय हमारे विजयपाल मामा व मामी हमारे साथ वर्षों रहे और मां की कमी को बहुत सीमा तक खलने नहीं दिया.
इस संदर्भ में इतना ही पर्याप्त है.
मामा(मामाजी नहीं—अपरिचित से लगने लगते हैं) -एक ऐसी सक्शियत वाले इंसान थे कि उनके आने से जो वयार घर में आती थी वह भी हलकी हो जाती थी---और हम सब उनको पानी भी नहीं पीने देते थे—बस कुछ कहें और हम सुने—वाली जल्दवाजी रहती थी यह जानते हुए भी कि सच कम होगा टप्प ज्यादा.
यहां उनकी निर्मित-रचित-गढित टप्प को उन्हीं शब्दों में कहने का प्रयास कर रही हूं---हालांकि जानती हूं उनकी आवाज,लय,कहां रुकना है---कहां सप्तम लगेगा,कहां मध्यम---फिर भी---
टप्प न०१---लली(वृज भाषा में लडकी के लिये सम्बोधन,नाम लेकर भी नहीं पुकारते थे,बडा अपनत्व से पगा हुआ सम्बोधन है)
 के आंधी चली और नाना की मुडी खोपडी पर रेत की परत जम गयी.
 आंधी के संग खलियान में कटे गेंहूं रखे वहे थे वो भी आंधी के संग उड कर नाना की खोपडी पर जम गये.
अब का भओ---दो-चार दिन बाद जो मेह बरसो कछु पूछो मत---पूछना क्या था?
जाहिर था मुडी खोपडी पर गिरे गेहूं के दाने सिंचित हो गये.
अब साहब,वा साल तुम्हारे नाना की चांद पर जो फसल वही—सालन के रेकोर्ड तोड दिये.
खलिहान फुल,घर की कुंडी फुल---सवाल जे पैदा भओ कि अब इतनी पैदावार को का करो जाय.
गांम के बढे-बूढन ने फैसलो लिओ कि बची पैदावार को आगा लगा दी जाय.
सो गांम के बाहर लेजाकर आग लगाई गयी—जो महीनन तक ना भुज पाई.
हम सब सांस लेकर सुनते रहते थे---पूछते रहते थे---ऐसे कैसे हो सकता है,मामा तुम झूठ बोल रहे हो---और मामा हमारी कसम भी खा लेते थे---नांय लली तेरी सों.
क्या भोला पन,क्या बेवकूफू,कसम की भी धज्जियां उड जाती थीं---लेकिन सार्थक था वह झूठ भी---जो हमें आनंद के चरम तक ले जाता था.
क्या हर्ज है----कुछ झूठ भी हो जाय.
हमारे विजय पाल मामा.

 

3 comments:

  1. चरैवेति का सन्देश देता सुन्दर आलेख।

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  2. स्मृतियों के न्मधुर साकार में हिलोरे लेना कितना सुहाता है ...
    अपने मामा की याद तो मुझे भी आ गयी ...

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  3. अकेलेपन में यादों के झरोखे से देखना कितना सुकून देता है...बहुत भावमयी आलेख...

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