कई बार प्रश्नों का सामना करना पडा---संभोग से समाधि के
रास्ते??
जब-जब जिक्र आया कि मैं ओशो को प्यार करती हूं---बहुत ही
अपना वक्तत्व---बिना किसी लाग-लपेट के---जैसे कोई बालक मां से कह रहा हो---मैं
तुम्हें प्यार करता हूं/करती हूं---क्या तुम भी मुझे प्यार करती हो?
और---कुछ अजीब सी प्रतिक्रियाओं ने मुझे घेरे लिया.
लगा कि कोई गलती कर रही हूं या कि कोई अनैतिकता की ओर मैरे
कदम बढ रहें हैं---उंगलियां भी उठने लगीं.
पराकाष्ठा जब होने लगी जब तथाकथित ओशो अनुयाइयों के बीच भी
मुझे हैरत की नजर से देखा जाने लगा.
कई प्रश्न मन में उठने लगे???
या तो मैं ही समझने में भूल कर रही हूं या कि लोग ही समझना
ही नहीं चाह रहे हैं?
लोग अमृत पीना चाहते है ---किनारे खडे होकर.
भूल जाते हैं---अमृत समुंद्र-मंथन से निकलता है.
मन को मथिये---साहस चाहिये,मुमुक्षा चाहिये,प्रयोजन
चाहिये---किस लिये चाह है, अमृत की, वासना में रमने की चाह है---या कि मुक्ति के
पथ पर अग्रसर होने की???
खुद को ढूंढना होगा---और इसके लिये खुद में उतरना होगा.
समुंद्र की गहराइयों को मापने से पहले घर के द्वार से
गुजरती हुई धारा को मापना जरूरी हो जाता है—
मेरे आंगन का सूरज मेरे लिये पर्याप्त है.
मेरी मुडेरों पर फैली चांदनी ही मुझे शीतलता देगी.
मेरे रोपे पौधे मेरे घर को पहले महकाएंगे.
ओशो का सार---समभोग (संभोग नहीं) से समाधि है.
जीवन का पूर्ण—सत्य—शिव—सुंदरतम महाकाव्य.
इस महाकाव्य से कुछ पंक्तियां उद्धरित करना चाहूंगी.
इसे मेरा ओशो को प्रतिपादित करना ना समझा जाय.
जैसा और जितना ओशो को जान सकी—कहने के लिये आपसे अनुमति
चाहती हूं.
कहीं कुछ कहने में त्रुटि हो तो मेरे अग्रजन मुझे क्षमा करें
व मेरी त्रुटियों की ओर इंगित भी करें,आभारी रहूंगी.
अमृता प्रीतम की कही पंक्तियों से शुरू कर रही हूं—
’मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
जहां कोई सीढे नहीं,कोई खिडकी नहीं
और वहां पहुंचने के लिये----
सदियों के हाथों जो डंडी बनाई है
वो मेरे पैरों के लिये बहुत सकरी है...’
१.किसी देवता की पत्थर-मूर्ति में जो प्राण-प्रतिष्ठा कर
सकता है वही इस मुहब्बत के आलम को समझ सकता है कि मन और तन के संभोग से कोई समाधि
की अवस्था तक कैसे पंहुच जाता....
२.पांच तत्व की काया को जिंदगी का कर्म-क्षेत्र किस लिये
मिला है,मैं(अम्रृता प्रीतम) समझती हूं इसका रहस्य ओशो ने पाया है----
३.प्रेम और भक्ति
ये दो लफ़्ज ऐसे हैं,जो हमारे चारों ओर सुनाई देते हैं,लेकिन इस तरह से
घबराए हुए से, जैसे वो लोगो के बागों से तोडे हुए चोरी के फूल हों.
४.-----(ओशो)सहज मन से उस संभोग की बात कह पाए---जो एक बीज
और एक किरण का संभोग है,और जिससे खिले हुए फूल की सुगंध इंसान को समाधि की ओर ले
जाती है,मुक्ति की ओर ले जाती है,मोक्ष की ओर ले जाती है....
पुनःश्चय---लिखती रहूंगी—ओशो,मैं तुम्हें प्यार करने लगी
हूं,श्रंखला के अंतरगत.
कृपया पढते रहिये,धन्यवाद.
मन के-मनके
पढ़ते पढ़ते स्वत: ही जैसे इह लोक से किसी माया में विचरण होने लगता है मन .... कहने सुनने से परे हो जाना ही तो शायद ओशो है ...
ReplyDeleteThanks,u dare to comment,naasavaajii.
ReplyDeletemy heartiest wishes to u and ur family.
बहुत ज्यादा तो नहीं, बस इतना समझ पाया कि यह जीवन मोक्ष प्राप्ति का एक साधन है
ReplyDeleteसादर आभार !
उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
नयी पोस्ट@श्री रामदरश मिश्र जी की एक कविता/कंचनलता चतुर्वेदी
मैं तो थोड़ा बहुत ही समझ पाया हूँ
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