Wednesday 9 April 2014

Bursting The Narcissistic Bubble




The Times Of India—(A widely read Daily in India)
Column---Speaking Tree
Title of the Article—
                              Bursting The Narcissistic Bubble


The Times Of India—(A widely read Daily in India)
Column---Speaking Tree
Title of the Article—
                              Bursting The Narcissistic Bubble
स्वमोत्प्रतिष्ठित-मनोवृति---
स्वम-अहम के गुब्बारे को उस स्थिति तक फुलाना कि अंततः वह फूट ही जाय---
एक कोशिश की है—सरलीकरण की---आशा है मेरे कहने के आशय को समझना मुमकिन हो पाया हो.यदि हां—तो धन्यवाद,अन्यथा मेरे स्पष्टिकरण के माध्यम से समझना आसान होगा,ऐसा मेरा मानना है.
कृपया क्षमा करें यदि---जो मैं कहना चाह रही हूं,यदि वह कह नहीं पाई.
अधिकतर लोग,जीवन में सफलता पाने के लिये सब कुछ दांव पर लगा देते हैं---अपना शरीर,मन यहां तक कि अपनी आत्मा भी.
प्रश्न---सोचिये—जब हमने अपना सब कुछ ही दांव पर लगा दिया---तो सफलता किसके लिये?
सोचिये सफलता किसके लिये?
सोचिये सफलता क्यों?
सोचिये,आप सफलता चाहेंगे जब—आप हैं या तब जब ,आप, नहीं हैं?
सफल होना ,या सफलता पाना मानवीय जीवन का जरूरी आयाम है,निःसंदेह.
परंतु,उसका सम-भोग भी जरूरी है,अन्यथा सफलता ,तिजोरी में रखा हीरा मात्र है,जिसका वर्तमान में कोई मूल्य नहीं और भविष्य में उसका मूल्य आंकने वाला ही नही.
तो---
सफलता तो मानवीय जीवन की अनिवार्यता है,परंतु स्वम मानव का जीवन अति-अनिवार्य है----उसकी वांछनीयता को आंकने के लिये.
सफलता के मापदंड क्या हैं?
१.उच्चतर पद---समाजिक,राजनैतिक---
२.प्रचुर प्रसंशा
३.सम्मान का सिंघासन
४.असीमित ताकत
५.असीमित-अतृप्त कामवासनाएं
६.धन का असीमित भंडार---जो निश्चय ही अपनी उपयोगिता खो देता है जब वह प्रावाहविहीन हो जाय.
क्योंकि,धन एक धारा है जो बह्ती रहे तो सुवासित होती रहेगी अर्थात अपनी उपयोगिता की खुशबू बिखेरती रहती है-- अन्यथा तालाब का पानी है,सडांध से भरा.
७.कभी न ढलने वाला यौवन.
सोचिये---यदि बचपन ना होता तो यौवन संभव था?
कल्पना कीजिये---संसार में सभी युवा नजर आंए तो?
कल्पना कीजिये—उस नजारे को,जहां ना किलकारियां हैं,ना ही  नटखट धमाचौकडी,ना ही मां के आंचल की छांव,ना ही पिता के कदमों की आहट,और दादी मां की थपकियां ,नानी मां की लोरियां,दादाजी और नानाजी की ठसक----ये इंद्रधनुष रिश्तों के-----असीमित-अतृप्त-वासनाओं के काले बादलों में खो जाएं?
हर तरफ नजर आयेंगी---जींस में फसीं हुई टांगे,आंखों पर बेतुके गोगल.अधखुली छातियों से झांकती---नशे और विकृत जीवन शैली की बैसाखियां.
नियामती-खूबसूरती को ढकती हुई नकाबें.
सोचिये----
क्या यौवन इतना चाहिये कि,रिश्तों के इंद्रधनुष को देखने के रोमांच से वंचित रह जाएं???
प्रश्न---बहुत-बहुत उठते हैं??? जवाब हमको ही ढूंढने होंगे.
भूल जाते हैं---संसार में हर कण परिवर्तनशील है,हर क्षण.
यहां ,कुछ भी सदैव के लिये नहीं है.
यहां तक कि,प्रयत्न भी चुक जाते हैं,तो उपलब्धियों का क्या कहें???
परिणाम---
जब सब कुछ असीमित हो जाय,जब सम—अ-सम हो जाए तो गुब्बारा तो फूटना ही है.
रबड के खिचने की भी एक सीमा होती है.
यहां हर चीज बिखरती है.
हर चीज चटकती है.
हर चीज खत्म होती है-----जहां से शुरू होती है,वहीं पहुंच जाती है.
आस्तित्व वर्तुल है.
,सम, का ,अ-सम, होना हमें विभ्रमित करता है.हम हर उपलब्धि से चकाचौंध होते हैं---हालांकि उपलब्धि की अपनी कोई चकाचौंध नहीं होती है ,हमारी विभ्रमता उसे झूठे उजालों से ढक देती है,अपनी विभ्रमित मनोदशा के कारण हम वस्तुस्थिति को वस्तिविक स्थिति में देख नहीं पाते है.
परिणाम----स्ट्रेस,डिप्रेशन,सप्रेशन---इस व्यूह-जाल में फंस गये तो निकलना कठिन हो जाता है.
पाया क्या,कितना?
खोया क्या,कितना?
हर कोई दौड रहा है,हांफ रहा है,केवल इच्छाओं के उस घडे को भरने के लिये जिसकी तली में छेद हैं,हमारे अहंकारों के,दूसरों को शोषित करने की प्रवृतियों के,दूसरों को दमित करने की इच्छाओं के, चालाकियों से भरे रश्तों के--ये छेद हमने ही किये हैं.
घडा हर दिन भरता है----हर दिन खाली हो जाता है.- और अतृप्त इच्छाओं के मरुस्थल में ्भटकते रहते हैं जहां मरुद्धान कम, मिराज़ ज्यादा हैं.
इच्छाएं---असीमित क्यों हो जाती हैं???
जब हम अपने-आप को कम आंकने लगते हैं.
दूसरों से अपनी तुलना करते हैं.
’जरूरत से अधिक है’ की पहेली को नहीं समझ पाते हैं.
सदैव कुछ कम है---कुछ और चाहिये---इस भ्रम में फंस जाते हैं.
यहां कुछ भी अंतिम नहीं है.
सब कुछ की--- सीमा है.
जहां लकीर खींच दें---\
खींच दीजिये एक लकीर-- हर उस लकीर के नीचे, जो हमें अपनी लकीर से बडी जान पडती हो.
सीखनी होगी यह कला--हर कोई सीख सकता.
एक कहानी याद आ रही है---ओशो द्वारा उद्धरित
एक फकीर,अपने काले लबादे में लिपटा,हाथ में एक कटोरा,एकमात्र दौलत,गांव-गांव घूमता,मांगता खाता,गाता---एक दिन वह नदी किनारे से गुजर रहा था ,उसने देखा एक कुत्ता नदी तट पर पानी पी रहा रहा है-- अपनी जीभ से---पानी पी कर अपनी पूंछ फटकारता हुआ आगे बढ गया--- वह कुत्ता.
और,अनायास ही उस फकीर ने अपने हाथ का कटोरा नदी में फेंक दिया---
आसमान में हाथ उठा कर मालिक को धन्यवाद देने लगा--ऐ,मेरे मालिक,
तूने तो मुझे दो हाथ और दो पैर भी दिये हैं, इस बेचारे को तूने हाथ भी नहीं दिये हैं और यह मस्ती से पानी पी कर चला भी गया!!!
मैं, कम से कम, अपने हाथों की चुल्लू बना कर तो पानी पी सकता हूं.
कहना यह नहीं है कि---हम भी वही करें जो उस फकीर ने किया,लेकिन फकीर की मनोदशा को समझने की कोशिश तो करें.छोटी लकीर को बिना मिटाए बडी करने की कला को जान सकें.
प्रयत्नशीलता---तो एक ऐसी कडी है जो पिरोई जानी चाहिय---निरंतर, जीवन की सार्थकता के लिए.
प्रसन्न्ता या खुशी एक ऐसी मनोदशा है---जब हम स्वम को इस आस्तित्व का हिस्सा जान लेते हैं---यानि कि, ऐसी सोच---कि,मेरे जैसे कितने हैं---मैं कितनों से बेहतर हूं----कोशिश की थी---आंकलन में भूल हो गई---कुछा ज्यादा चाह बैठे---या देने वाले से भूल हुई होगी-----
अपने आस्तित्व के चोंगे को झटका कर खडे हो जाइये,पछतावों की धूल,निराशाओं की कीचड सब साफ हो जाएगी---चल पडें उस ओर---ना जाने क्या,कौन,कहां कोई हमारी बांट जोह रहा है.
हर कोई खुश होना चाहता है----
लेकिन खुशी क्या है---जान नहीं पाते हैं .
क्षणिक उत्तेजनाओं को,खुशी समझ लेते हैं,जो नशा भर हैं.चढ गया तो आसमान पर,उतर गया तो,ओंधे मुंह.
एक ऐसा नशा---संसारिक सुविधाओं का जमावडा,घरों में जगहें कम पड जाती हैं-- खुशियों के लिये.
सच्ची प्रसन्न्ता उत्तेजना नहीं है.
तो फिर क्या है---
यह जानने के लिये उतरिये उस मय खाने में जो हर एक के अंतरमन में है,भरें अपने-अपने पैमाने को अपने-अपने विवेक व सकारत्मकता से---कोशिश कीजिए चूहे-बिल्ली की दौड से बाहर निकलने की---
इसके लिये थोडा साहस तो चाहिये,विवेक-समझ का सहारा भी---जो हम सब के पास है.
खुशियों के नजरियों को बदलिये.
कभी-कभी देने में भी खुशी मिलती है.
कभी-कभी लुटने भी खुशी मिलती है.
कभी-कभी साथ-साथ रोने भी खुशी मिलती है.
और-- साथ-साथ हंस कर तो देखिये.
                             मन के-मनके

स्वमोत्प्रतिष्ठित-मनोवृति---

स्वम-अहम के गुब्बारे को उस स्थिति तक फुलाना कि अंततः वह फूट ही जाय---
एक कोशिश की है—सरलीकरण की---आशा है मेरे कहने के आशय को समझना मुमकिन हो पाया हो.यदि हां—तो धन्यवाद,अन्यथा मेरे स्पष्टिकरण के माध्यम से समझना आसान होगा,ऐसा मेरा मानना है.
कृपया क्षमा करें यदि---जो मैं कहना चाह रही हूं,यदि वह कह नहीं पाई.
अधिकतर लोग,जीवन में सफलता पाने के लिये सब कुछ दांव पर लगा देते हैं---अपना शरीर,मन यहां तक कि अपनी आत्मा भी.
प्रश्न---सोचिये—जब हमने अपना सब कुछ ही दांव पर लगा दिया---तो सफलता किसके लिये?
सोचिये सफलता किसके लिये?
सोचिये सफलता क्यों?
सोचिये,आप सफलता चाहेंगे जब—आप हैं या तब जब ,आप, नहीं हैं?
सफल होना ,या सफलता पाना मानवीय जीवन का जरूरी आयाम है,निःसंदेह.
परंतु,उसका सम-भोग भी जरूरी है,अन्यथा सफलता ,तिजोरी में रखा हीरा मात्र है,जिसका वर्तमान में कोई मूल्य नहीं और भविष्य में उसका मूल्य आंकने वाला ही नही.
तो---
सफलता तो मानवीय जीवन की अनिवार्यता है,परंतु स्वम मानव का जीवन अति-अनिवार्य है----उसकी वांछनीयता को आंकने के लिये.
सफलता के मापदंड क्या हैं?
१.उच्चतर पद---समाजिक,राजनैतिक---
२.प्रचुर प्रसंशा
३.सम्मान का सिंघासन
४.असीमित ताकत
५.असीमित-अतृप्त कामवासनाएं
६.धन का असीमित भंडार---जो निश्चय ही अपनी उपयोगिता खो देता है जब वह प्रावाहविहीन हो जाय.
क्योंकि,धन एक धारा है जो बह्ती रहे तो सुवासित होती रहेगी अर्थात अपनी उपयोगिता की खुशबू बिखेरती रहती है-- अन्यथा तालाब का पानी है,सडांध से भरा.
७.कभी न ढलने वाला यौवन.
सोचिये---यदि बचपन ना होता तो यौवन संभव था?
कल्पना कीजिये---संसार में सभी युवा नजर आंए तो?
कल्पना कीजिये—उस नजारे को,जहां ना किलकारियां हैं,ना ही  नटखट धमाचौकडी,ना ही मां के आंचल की छांव,ना ही पिता के कदमों की आहट,और दादी मां की थपकियां ,नानी मां की लोरियां,दादाजी और नानाजी की ठसक----ये इंद्रधनुष रिश्तों के-----असीमित-अतृप्त-वासनाओं के काले बादलों में खो जाएं?
हर तरफ नजर आयेंगी---जींस में फसीं हुई टांगे,आंखों पर बेतुके गोगल.अधखुली छातियों से झांकती---नशे और विकृत जीवन शैली की बैसाखियां.
नियामती-खूबसूरती को ढकती हुई नकाबें.
सोचिये----
क्या यौवन इतना चाहिये कि,रिश्तों के इंद्रधनुष को देखने के रोमांच से वंचित रह जाएं???
प्रश्न---बहुत-बहुत उठते हैं??? जवाब हमको ही ढूंढने होंगे.
भूल जाते हैं---संसार में हर कण परिवर्तनशील है,हर क्षण.
यहां ,कुछ भी सदैव के लिये नहीं है.
यहां तक कि,प्रयत्न भी चुक जाते हैं,तो उपलब्धियों का क्या कहें???
परिणाम---
जब सब कुछ असीमित हो जाय,जब सम—अ-सम हो जाए तो गुब्बारा तो फूटना ही है.
रबड के खिचने की भी एक सीमा होती है.
यहां हर चीज बिखरती है.
हर चीज चटकती है.
हर चीज खत्म होती है-----जहां से शुरू होती है,वहीं पहुंच जाती है.
आस्तित्व वर्तुल है.
,सम, का ,अ-सम, होना हमें विभ्रमित करता है.हम हर उपलब्धि से चकाचौंध होते हैं---हालांकि उपलब्धि की अपनी कोई चकाचौंध नहीं होती है ,हमारी विभ्रमता उसे झूठे उजालों से ढक देती है,अपनी विभ्रमित मनोदशा के कारण हम वस्तुस्थिति को वस्तिविक स्थिति में देख नहीं पाते है.
परिणाम----स्ट्रेस,डिप्रेशन,सप्रेशन---इस व्यूह-जाल में फंस गये तो निकलना कठिन हो जाता है.
पाया क्या,कितना?
खोया क्या,कितना?
हर कोई दौड रहा है,हांफ रहा है,केवल इच्छाओं के उस घडे को भरने के लिये जिसकी तली में छेद हैं,हमारे अहंकारों के,दूसरों को शोषित करने की प्रवृतियों के,दूसरों को दमित करने की इच्छाओं के, चालाकियों से भरे रश्तों के--ये छेद हमने ही किये हैं.
घडा हर दिन भरता है----हर दिन खाली हो जाता है.- और अतृप्त इच्छाओं के मरुस्थल में ्भटकते रहते हैं जहां मरुद्धान कम, मिराज़ ज्यादा हैं.
इच्छाएं---असीमित क्यों हो जाती हैं???
जब हम अपने-आप को कम आंकने लगते हैं.
दूसरों से अपनी तुलना करते हैं.
’जरूरत से अधिक है’ की पहेली को नहीं समझ पाते हैं.
सदैव कुछ कम है---कुछ और चाहिये---इस भ्रम में फंस जाते हैं.
यहां कुछ भी अंतिम नहीं है.
सब कुछ की--- सीमा है.
जहां लकीर खींच दें---\
खींच दीजिये एक लकीर-- हर उस लकीर के नीचे, जो हमें अपनी लकीर से बडी जान पडती हो.
सीखनी होगी यह कला--हर कोई सीख सकता.
एक कहानी याद आ रही है---ओशो द्वारा उद्धरित
एक फकीर,अपने काले लबादे में लिपटा,हाथ में एक कटोरा,एकमात्र दौलत,गांव-गांव घूमता,मांगता खाता,गाता---एक दिन वह नदी किनारे से गुजर रहा था ,उसने देखा एक कुत्ता नदी तट पर पानी पी रहा रहा है-- अपनी जीभ से---पानी पी कर अपनी पूंछ फटकारता हुआ आगे बढ गया--- वह कुत्ता.
और,अनायास ही उस फकीर ने अपने हाथ का कटोरा नदी में फेंक दिया---
आसमान में हाथ उठा कर मालिक को धन्यवाद देने लगा--ऐ,मेरे मालिक,
तूने तो मुझे दो हाथ और दो पैर भी दिये हैं, इस बेचारे को तूने हाथ भी नहीं दिये हैं और यह मस्ती से पानी पी कर चला भी गया!!!
मैं, कम से कम, अपने हाथों की चुल्लू बना कर तो पानी पी सकता हूं.
कहना यह नहीं है कि---हम भी वही करें जो उस फकीर ने किया,लेकिन फकीर की मनोदशा को समझने की कोशिश तो करें.छोटी लकीर को बिना मिटाए बडी करने की कला को जान सकें.
प्रयत्नशीलता---तो एक ऐसी कडी है जो पिरोई जानी चाहिय---निरंतर, जीवन की सार्थकता के लिए.
प्रसन्न्ता या खुशी एक ऐसी मनोदशा है---जब हम स्वम को इस आस्तित्व का हिस्सा जान लेते हैं---यानि कि, ऐसी सोच---कि,मेरे जैसे कितने हैं---मैं कितनों से बेहतर हूं----कोशिश की थी---आंकलन में भूल हो गई---कुछा ज्यादा चाह बैठे---या देने वाले से भूल हुई होगी-----
अपने आस्तित्व के चोंगे को झटका कर खडे हो जाइये,पछतावों की धूल,निराशाओं की कीचड सब साफ हो जाएगी---चल पडें उस ओर---ना जाने क्या,कौन,कहां कोई हमारी बांट जोह रहा है.
हर कोई खुश होना चाहता है----
लेकिन खुशी क्या है---जान नहीं पाते हैं .
क्षणिक उत्तेजनाओं को,खुशी समझ लेते हैं,जो नशा भर हैं.चढ गया तो आसमान पर,उतर गया तो,ओंधे मुंह.
एक ऐसा नशा---संसारिक सुविधाओं का जमावडा,घरों में जगहें कम पड जाती हैं-- खुशियों के लिये.
सच्ची प्रसन्न्ता उत्तेजना नहीं है.
तो फिर क्या है---
यह जानने के लिये उतरिये उस मय खाने में जो हर एक के अंतरमन में है,भरें अपने-अपने पैमाने को अपने-अपने विवेक व सकारत्मकता से---कोशिश कीजिए चूहे-बिल्ली की दौड से बाहर निकलने की---
इसके लिये थोडा साहस तो चाहिये,विवेक-समझ का सहारा भी---जो हम सब के पास है.
खुशियों के नजरियों को बदलिये.
कभी-कभी देने में भी खुशी मिलती है.
कभी-कभी लुटने भी खुशी मिलती है.
कभी-कभी साथ-साथ रोने भी खुशी मिलती है.
और-- साथ-साथ हंस कर तो देखिये.


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