कल---एक घर देखा
पत्थरों की दीवारों में
शीशों की खिडकियां
खिडकियों के पीछे
लोहे की जालियां
इन जालियों में
जंग खाती,अनुभूतियां, देखीं
कल---एक घर देखा
नौकरों की चहलकदमी में
अपनों की आहटें---
गुम
होती देखीं
गर,गुजरती भी---तो
गर्माहटें तलुवों की
गुम
होती देखीं—
कल----एक घर देखा
यहां,इंतजार बुढापों का
बीमारियों के लबादे
ओढे-ओढे---
कंधों की मजबूरियां देखीं
बीमारियों
से गुजरते
इंतजार,अपनो
से—
छुटकारों का देखा
कल---एक घर देखा
नामों से तख्तियां,
भरती देखीं---
वारिसों की पंक्तियों में
वंशावलियां देखीं
रीते इतिहासों की
अंधड सी,रवानियां देखीं
कल---एक घर देखा
घर
में आने से पहले
जाने
का इंतजार देखा
आने
वालों बोझों तले
अपनों का तिरिस्कार देखा
कल---एक घर देखा
एक
जा रहा था
धीरे-धीरे----और
दिल
थामें-----
दूसरा देख रहा था
इंतजार करते देखा
अपनी
बारी का—
कल---एक घर देखा
ऊंची दीवारों के---
उस
ओर----
इतिहासों को----
मिटते देखा—
नामों की तख्तियों पर
नामों को-----
मिटते देखा—
कल---एक घर देखा
जो
नाम बाकी थे अभी
सुनामी जैसी---बेताबी देखी
उनकी रवानगी में---
मजबूरियां देखीं
एक---घर ऐसा देखा
घरों की संवेदनाएँ भी कुंठित होती जा रही हैं - समय की गति को क्या कहे कोई !
ReplyDeleteअसल जीवन भी तो इन घर कि चार-दीवारियों के भीतर ही मिलता है ...
ReplyDeleteसुख दुःख, जीवन मरण ... इश्वर भी तो यहीं मिलता है ...
आपसे मिलना जीवन के एक सुखद अनुभवों में से एक रहा ... विस्तार से मेल पर लिखूंगा ...
ReplyDeleteघर देश की एक छोटी इकाई है...जो देश में हो रहा है...वही घर में भी...खूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeletebahut hi goodh rachna, behtareen tarike se likhi hui.
ReplyDeleteshubhkamnayen