हमारी यादों की दुनिया,मन-मस्तिष्क में,सदैव
गुलजार रहती है.
मेरे ख्याल से,हम अपनी जिंदगी का बहुत बडा
भाग,अपनी यादों की दुनिया में जीते हैं.कुछ छोटा सा हिस्सा वर्तमान में और कुछ
भविष्य की चिंता में गुजर जाता है.
ये यादें हमें हमेशा,एक तिलिस्म से घेरे रहती
हैं,जैसे बीती रात का नशा एक खुमारी,जो हमें वर्तमान के झंझावतों से झूझने के
लिये, एक छाया,एक सुकून और भविष्य के लिये
कुछ सपनों की दुनिया देती हैं---हमेशा गुलजार होती रहती है.
कभी-कभी मां की गोद की गर्माहट का सुख दे
जाती है तो कभी पिता जैसा आश्वासन और कभी चूल्हे पर सिकी रोटियो की खुशबू जैसी---
तृप्ति.
यही कारण है---यादें हमें,हमेशा लुभाती है.
मेरी यादों के बगीचे में---एक घर,उसके कुछ
कोने,करीब ६०-६५ वर्ष बाद भी,मेरे मानस-पटल पर,आज भी उतने ही स्पष्ट हैं जैसे कि
कल की घटना हो.
वे मेरी तरह बूढे नही हो रहे हैं.
मेरा मानना है, कुछ यादें कभी बूढी नही होती
हैं.जब वे पहली बार अंकित होती हैं तो उसी समय,उन्हें अमरत्व मिल जाता है, जैसे
कोई योगी-- योगसाधना के बल पर चिर-यौवन को पा ले.
एक घर,उसके सामने वाली सडक, जो नुकीले
पत्थरों से पटी थी,जिस पर नंगे पैर चलने से जो दर्द उस समय महसूस किया,वैसी ही टीस
आज भी,तलुओं में महसूस कर पाती हूं.
दर्द भी कभी मीठे होते हैं!!!
उस समय सफेद कंकडों वाली सडकें ही हुआ करती
थीं,डाबर वाली सडकों का आस्तित्व बाद में आया.
घर की ऊंची सी ड्योढी, जिसे लांघने के लिये,
हम बच्चों को एक ऊंची कूद लगानी होती थी.
मोटे-मोटे दो दरवाजे,दरवाजों पर ठुकी
मोटी-मोटी पीतल की फूलदार कीलें,उनमें टके कुंदें जिन्हें पक्ड कर हम बच्चे लटक
जाया करते थे-----और---उनकों को पकडे-पकडे,दरवाजे भिड भी जाते थे,मधुर चीत्कार के
साथ.आज की तरह दरवाजे बे-आवाज नहीं हुआ करते थे.
दरवाजे के पार दुबारी(एक दालान जो घर के
मुख्य भाग को अलग करता था,या यूं भी समझ सकते हैं,जनाने भाग को अलग करता था) घर का
वह हिस्सा जहां अक्सर घर की बुजुर्ग महिलाएं,बच्चों को संभालती,बैठी रहती थीं और
समाजिकता को सींचती रहतीं थीं.
नाती-पोतों से घिरी,आस-पास छोटे बच्चों से
घिरी,जो हमेशा उछल-कूद करते रहते थे या रोना-बिफरना---बेवजह,एक निरम्तर जारी रहने
वाली दिनचर्या.
दुबारी के बीचो बीच,दरवाजे से आंगन पार
करते-करते सामने कोठरीनुमा कमरा,
आंगन के बांये कोने में छप्पर की छांव तले चौका(रसोई)
रसोई के सहारे खडा जीना---अंदर सब कुछ लिपा-पुता.
इसके आगे यादों की यात्रा अचानक टूट जाती
है----
घर के मुख्य द्वार पर बुआ के लडके के
साथ,भारी-भरकम दरवाजे पर एक पैर रख कर झूला झूलना----और एक दिन झूला झूलते हुए
मेरे बायें पैर का अंगूठा दरवाजे की चूर में आ गया----और कुचल गया.वह पीडा मेरे साथ
आज भी जीवित है और बैडौल अंगूठा भी.
घर के ठीक सामने सीमेंट वाला बडा सा घर,जिसका
मुख्य द्वार हमेशा बंद रहता था.
बाहर ऊंची जमात वाला कुआ,कुए के सहारे बडा
सा----नीम का पेड,जिसकी शाखाएं कुए के ऊपर हमेशा झूमती रहती थीं.
चारों ओर नीम की पत्तियों की चादर सी बिछी
रहती थी,पीली रसभरी निबोरियों के साथ.
उन निबोरियों की कडुवेपन के साथ मिठास भी,आज तक बरकरार है.
जीवन का अटूट सत्य-----कुछा कडुआ,कुछ
मीठा---हो जाए!!!
जीवन के इतने बडे अंतराल के बाद,कितने ही
मकानों में रहना व बसना हुआ---लेकिन वह मकान,मकान के सामने सीमेंट वाला बडा सा
घर,घर के बाहर ऊंची जगत वाला कुआ,कुए पर झूमती नीम की डालियां और पीली पात्तियों
के कालीन पर बिछी कडुवी-मीठी निबोरियां---- उस फर्श पर नंगे पैर चलने हुई तलुवों
पर जलन--- और निबोरियों की सिसक ,आज भी यादों के झरोंखों से झांकती हैं---
क्योंकि,कुछ यादें बूढी नहीं होती हैं----
जब भी मैं उस घर की परछाई को अपनी यादों की
स्लेट पर लिख कर दुहराती हूं---तो---एक छाया का अहसास कभी भी नहीं हुआ-----मां का—
ऐसा क्यों!!!
कुछ तो अधूरा ही रहता है----शायद पूरा होने
के लिये.
मन
के-मनके
जीवन में बहुत कुछ अधूरा होता है जो उम्रके साथ या याद्दाश्त जाने के साथ ही खत्म होता है ... हाँ समय के साथ साथ तो ये ज्यादा जवान ही होता है यादों की तरह ...
ReplyDeleteसाक्षात चित्र उतार दिया उस मकान का ...
वो इस लिए कि यादें साथ होकर भी अधूरी ही रहती हैं
ReplyDeleteकुछ अधूरा अधूरा होना ज़रूरी भी होता है ताकि पूर्णता की आस बंधी रहे. यादें कभी साथ नहीं छोड़ती. सच कितना कुछ बदल गया है. सुन्दर लेखन, बधाई.
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