Sunday 16 March 2014

राहत---राहत----राहत---





राहत---एक शब्द---संवेदनाओं के फूलों को पिरोए हुए---हाथों के स्पर्शों की डोरी में—आंखों की अनकही भाषा की सुलझी हुई गांठों में----एक माला, जो इंसानियत के मंदिर में चढनी ही चाहिये,अन्यथा मानवता के देवालय पूर्वाग्रहों के खंडहरों के अलावा और कुछ भी नहीं हैं,जहां हम पत्थरों की मूर्तियों की पूजा करते-करते खुद भी पत्थर होते चले जा रहें हैं.
’राहत’---चाहिये ही हम सब को.
हम बीमार हैं,डाक्टर है,दवाइयों की कडुवाहटें भी हैं,ना चुका सकने वाली पर्चियों की लिस्टें भी हैं.
हम अकेले हैं—साथ है भी तो भी,साथ नहीं है-- और कोई विकल्प नहीं है.
’अकेलापन’ लाइलाज बीमारी है.जिसने झेल ली समझो,मोक्ष की राह पर चल पडा---अन्यथा ’अकेलेपन’ की सुरंग कभी ना खत्म होने वाली पगडंडी है,जहां घुप्प अंधेरा है.दुनिया का और कोई अंधेरा नहीं है,जो ’उजाले’ की देहरी को ना लांघ पाए.
तब,हमें राहत चाहिये—एक ऐसा साथ चाहिये,जो हम राह हो सके---किसी भी रिश्ते की टेक हो सकती है,एक स्पर्श भी राहत दे सकता है---चाहे अंधेरा कितना भी हो,हाथ थाम चलना आसान हो जाता है.
We are dying---
             अलविदा—कहने का समय हो आया हो, हमें ’राहत’ चाहिये.कोई कह सके कानों में---जाइये सुकून से,आप अकेले नहीं हैं,उन अनजानी राहों पर ,हम भी आ रहे हैं.बस---थोडा इंतजार---जाने वाले को ’थोडा सुकून आ जाता है,थोडी राहत मिल जाती है,जो बहुत-बहुत जरूरी है---और जरूरतों के अलावा.
आज,मानवता बिखर रही है---
जैसे फूल की पंखुडियां---बिखर जायं तो फूल बदसूरत सा लगने लगता है,खूबसूरती बिखर गई हो जैसे.
आज हमारे पास सरप्लस में जीवन है,हर आयाम से देखें तो.सुविधाएं के ढेर लगते चले जा रहे हैं(जनसंख्या का बडा भाग अभी भी वंचित है आधारभूत सुविधाओं से).
क्या करें इन सुविधाओं को खाया भी नहीं जा सकता,ना ही बिछा कर सोया जा सकता है,क्योकि एक स्थिति पर आकर सरप्लस कचरा ही हो जाता है.
’जीवन’—एक मुकाम पर आकर---सीधी सपाट लाइन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता है,यदि जीवन संवेदनहीन हो जाय जैसे बगैर स्वाद का भोजन जीने के लिये खाया जा रहा है,बगैर तृप्ति के.
एक घटना याद आ रही है---
मेरी एक परिचित महिला केंसर से पीडित थीं और वे मृत्यु शैय्या पर थीं.औपचारिकता वश उनसे मिलने जाना हुआ.
डाक्टर से लेकर,उनके पति व परिवार के अन्य सदस्य अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे थे---निःसंदेह.
परंतु, कुछ था, जो नहीं था.
मैं उनके सिराहने बैठ गई. अनायास ही उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं और मेरी आंखों में देखने लगीं.
आंखो में एक दर्द था जो उनकी बीमारी की पीडा से भिन्न था.कुछ कहना चाह रहीं थीं, जैसे कोई इच्छा जो अधूरी रह गई हो----
कोशिश की---उनके जलते हुए माथे पर मेरी हथेलियां रखीं थीं और वे मुझे देखे जा रहीं थीं.और धीरे-धीरे उनकी आखें बंद होती चली गईं,लगा शायद—उन्हॆ वह मिल गया है जो वो चाह रहीं थीं.कह नहीं सकती---मैं उनसे कुछ कह पाई या नहीं क्योंकि वहां कोई शब्दों का आदान-प्रदान नहीं था.हां आखों की भाषा जरूर थी और हथेलियो के स्पर्ष से---मैं कह पाई—अलविदा,जाइये---सुकून से.मिलेंगे,बस थोडा इंतजार.
’राहत’
     एक ऐसा फूल जो किसी शाखा पर नहीं खिलता है,वरन—आखों की नजर से फूल झरते हैं,हथेलियों के स्पर्श में खुशबू समेटतें हैं उनकी और खोल दीजिये इन हथेलियों को,आंखों की पलकों से पंखुडियों को खिलने दीजिये----और----एक ’राहत’ बिछ जाये उन रास्तों पर जिन पर से होकर गुजरने वाले हैं,अपने ही---दूर अनजानी राहों के सफर पर.
                                                    मन के-मनके






7 comments:

  1. होली की शुभकामनायें...

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  2. सुन्दर पोस्ट.....आप को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@हास्यकविता/ जोरू का गुलाम

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  3. बहुत सुन्दर ...होली की हार्दिक शुभकामनायें.....

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  4. अंतस को छूती बहुत गहन प्रस्तुति...होली की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं!

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  5. राहत ... पेड़ों पर तो खिल भी नहीं सकता ... ढूँढना होता है अंतस में ... वहाँ मिल जाए तो सुकून नहीं तो किसी अपने को देना होता है ये फूल ... जो कई बार अपने होते हुए भी नहीं मिल पाता ... फिर खोजना होता है भीतर ही ...
    गहन प्रस्तुति ... होली कि शुभकामनायें ... अगले महीने भारत आने पे शायद आगरा होना हो ... १५ से १७ अप्रेल के बीच ...

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  6. सच लिखा है, बस जीवन में राहत मिल जाये। होली की शुभकामनायें।

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  7. sach hai rahat jeene mein nai umang bhar deta hai, jeene ki asha ka sanchar kar deta hai.. bas rahat mil jaye.

    shubhkamnayen

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