Friday 3 May 2013

करीब---बीस रोज़ बाद


                करीब,बीस रोज़ बाद---आप सब से पुनः जुड रही हूं----
पुनः ’जुडना’ कहना उचित नहीं होगा.मैं यहां,सटीक शब्द का चयन नहीं कर
पा रही हूं, क्षमा करें----जो तार,टूटा ही नहीं था,उसे पुनः जोडने की परिधि में
बांधना,नासमझी है.
इन दिनों,कुछ समाजिक गतिविधियों में व्यस्त रही,साथ ही जीवन को ढूंढने का
प्रयत्न भी करती रही.
हम,रोजमर्रा की जिंदगी को एक आदत के रूप में,जिये चले जाते हैं---जैसे एक
निश्चित समय पर जागना-सोना,दैनिक क्रियाकलाप,एक रेल की पटरी पर,खट-खट करते हुए,बस चलते ही रहते हैं---कभी-कभी,यह खट-खट,’हमें’ लीलने लगती है और लगने लगता है कि,हमारा आस्तित्व ही इस खट-खट में विलीन हो रहा है,जैसे—’हम’ कहीं खो गये हैं---और जीवन की स्थूलता ही चारों तरफ नजर आने लगती है,घबराहट होने लगती है---और,सोते-सोते,आंखें मूंदे---बिस्तर पर खुद को ही,ढूंढने लगते हैं.
’ओशो’---एक,क्रांतकारी,विवादित,विचारक,तार्किक,जिन्होंने,जीवन के प्रत्येक आयाम के शीशे पर जमी धूल को,बेफिक्र,बेखौफ होकर झाडा---कि,’मैं’ नजर आने लगा.
सत्य की गहराइयों से गुजारते हुये,वे—आस्तित्व के गर्भगृह तक पहुंचा देते हैं.
उनके विचार व कथन का हथोडा.हर ढोल की पोल पर बेहिचक गिरता है,और उस गूंज में बह जाने के सिवाय और कोई विकल्प है ही नहीं,जहां कोई मोक्ष,
ईश्वर,नर्क-स्वर्ग,नजर नहीं आते हैं—बस एक ’आस्तित्व’ शेष रह जाता है ,जहां से,हर यात्रा का आरंभ-अंत है----जिसे हम,हर संभव कोशिश से नकारते रहें हैं,
और,विकृतियों के कोढ को ओढे जिये चले जा रहे हैं.
मेरी इस यात्रा का डेश्टीनेशन जबलपुर था,जहां ’ओशो’(आचार्य रजनीश) ने एक प्रध्यापक के रूप में कुछ वर्ष गुजारे थे.
स्वाभाविक है,उनसे जुडीं,कुछ बातें,कुछ यादें व स्थान---एक आमंत्रण दे रहे थे,और कोशिश रही,उन स्थानों पर जाकर,उस संबुद्ध से विक्रींण हुई ऊर्जा को
महसूस कर पाऊं----
’मौलश्री’ नाम मुझे सदा ही आकृषित करता रहा है,वह वृक्ष,जिसकी छांव में ध्यानमग्न हो—’ओशो’ संबुद्ध हुए.
उस वृक्ष की छाया में कुछ पल बिताने का सुअवसर मिला.साथ ही उसके बीज से पल्लवित,चार पत्ती वाला एक छोटा सा पौधा भी साथ ले आई.
’कुचवाडा’---एक छोटा सा गांव,जबलपुर से करीब २०० किलो मीटर,भोपाल मार्ग पर,इतना अनजाना गांव,कि रास्ते भर उसको ढूंढते रहे----’ओशो’ के नाम को जानने वाला केवल एक सक्श मिला—अचंभा हुआ,दुख भी---
इस विषय पर,काफी कुछ कहने व लिखने को मन करता है---सही समय आने पर शायद कुछ कह पाऊं.
’कुचवाडा’—’ओशो’ की ननिहाल,जहां उन्होंने अपने आरंभिक जीवन के ७-८ वर्ष गुजारे,अपने नाना-नानी के साथ---वहीं से वह नींव निर्मित हो गयी थी,जिस पर
’ओशनिक’ विचारधारा का आस्तित्व खडा हुआ.
उनका पैतृक गांव ’गाडरवारा’ है जो जबलपुर करीब १५० किलो मीटर पर स्थित है.
जीवन एक मुख्य धारा है,जिसमें समय-समय पर,अन्य धाराएं जुडती-मिलती रहती हैं,कुछ धाराएं वैचारिक भी होती हैं जो कुछ खास अवस्था पर पनपने लगती हैं,और मुख्य धारा को प्रभावित करती हुईं, उसके साथ हो लेती हैं.
मैं,अपनी इस यात्रा वृतांत को,भरसक छोटा करने का प्रयास कर रहीं हूं---क्या करूं,जीवन के कई पर्दे खुल रहे हैं---उनमें से झांक कर जो देखा----
फिर कभी लिखूंगी----और ’सत्य’ को, ’ओशो’ की कसोटी पर रख---परखने का प्रयास करूंगी----
                     आज,बस इतना ही----


4 comments:

  1. अच्छा लगा ओशो की ननिहाल कुचवाडा के बारे में जानकर, इस बारे में या कहें उनके बचपन के बारे में My Golden Childhood किताब में विस्तार पूर्वक लिखा हुआ है.

    ओशो शब्द और तर्क के उस आयाम तक पहुंचाने में सक्षम हैं जहां बुद्धि काम करना बंद कर देती है. यही से आगे की यात्रा शुरू होती है.

    रामराम.

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  2. सत्‍य को तलाशने का प्रयास सराहनीय है ..
    आपके अनुभवों का हमें इंतजार रहेगा !!

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  3. जबलपुर -ओशो धाम- यात्रा वृतांत का इन्तजार रहेगा विस्तार में.

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