मैंने भी,एक घरोंदा---यूं ही नहीं बनाया था
खिलौनें
तो---बहुत और भी थे,
खेलने के
लिये
इसको,खिलोना समझ----मैंने
खरीदा नहीं था,छीना भी नहीं था,
किसी और से----
मेरे वज़ूद से---कतरा-कतरा,होते रहे
दिन-रात से,हर एक सपने---मेरे सहर के
सपनों को,ईंटों की तरह---चिनती रही
इंतजारी गारे से जोड,दीवारें खडी,करती रही
बे-खबर थी-----अनजान थी
सपने तो सपने,होते हैं, और कुछ भी
नहीं
कहीं---किसी
को---कहते सुना था
कल सुबह
की होन में----
एक सपना
देखा था,कि---
एक टुकडा---आंगन में,आ गिरा,चांद का
और----वो
सच था
गोद में,एक टुकडा, चांद का
सो रहा था----चांदनी बिखरी हुई थी
मैंने भी,सोचा---चाहा था
सपनों की,ईंटों को,चुन-चुन---
प्यार का एक घरोंदा---मैं भी बना लूं
फिर उस सपने को----
सुबह की होन में----
जागते हुए---खुली आंखों से----
मैं भी---देख लूं
और---एक
घरोंदा,प्यार का
टूटे
नहीं---बहानों की चोट से
नकारा न हो जाए---बाजार में
और,प्यार
का घरोंदा
जमुना्यी(जमुना
नदी का किनारा)आंसुओं के किनारे
ताज
सा---संगमरमरी हो जाय
शरदपूर्णिमा
की,चांदी सी रात में
यह घरोंदा----प्यार
का
मैंने,यूं ही नहीं
बनाया था
पर--------
शरदपूर्णिमा की----
चांदी सी रात---
हर पाख---बिखरती रही
मैं,जमुनायी आंसुओं के किनारे बैठी
संगमरमरी ताज बनने का---
इंतजार----करती रही
पर-------
ताज को गढने के लिये---
एक, शाहेजहां--- कहां था?
मुमताज तो---कफ़्न में दफ़्न
थीं---
झरोंखों से निहारता-----
दफ़्न होता---
शाहेजहां---वहां,था ही नहीं---
जब हमारा वजूद का तिनका तिनका इकठ्टा होता है तब ही तो बनता है घरौंदा ।
ReplyDeleteआपकी लेटेस्ट पोस्ट बी बहुत अच्छी लगी पर उस पर टिप्पणी नही कर पाई ।
आशा है आपका स्वास्थ ठीक होगा ... काफी समय से आप ब्लॉग जगत में उपस्थिति दर्ज नहीं कर रहीं हैं ...
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