क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
प्रिय पाठको पिछले
दो सप्ताहो से मैं ओशो शिविर से सम्बधित कार्यकलापो मे व्यस्त हो गई थी इस कारण बस
मैं ब्लोग पर नियमित न रह सकी . आशा है आप सब मुझे क्षमा करेगे भबिष्य मे ऎसा न हो
इसका मै ध्यान रखूगी
ईसी सन्दर्भ मे
कुछ पक्तियां लिखी है जिन्हे मैं प्रस्तुत कर रही हूं
प्रिय पाठको के
नाम
दोस्तो, एक अरसा
हुआ
आप से रुबरु न हो
पाए हम
दिन तो महज कुछ ही
थे
मगर जैसे सालों का
फासला हुआ जिदगी महज इत्तेफाक सी लगने लगी
क्यों रास्तो पर
धुधं सी नजर आने लगी
अब तलक पहचानते थे
खुद को हम
अचानक शीशे मे
चहरा क्यो पराया लगने लगा
कभी कानों मे गूंज थी किलकारियों की
कभी गोदी मे थी अपनो की गरमाहटे
तो कभी ढूंढते खुद को ही हम
पहचाने रास्तों में यूं भटकने लगे हम
जैसे की रास्तो के मोड़ नए हो गये
पहचाने चौराहो पर आवाजे भी पराई सी
लगने लगी
कभी खुद को
ही भटका हुआ सा जान हम
भूली ही राहो पर
ढूढने क्यों निकल पडे
न जाने ये क्या
हुआ था हमे
सब कुछ बंद था
मुठ्ठी मे मेरे
और क्या- क्या
पाने की चाहतों मे
बंधी मुठ्ठीयों को
रीती करते रहे थे हम
तो फ़िर लौट आये है हम,
दोस्तो की यादों की दर पर हम
बादा भी करना है हमको
न भटकेगे दुबारा भटकती हुई
राहो पर हम
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
मुझे अब पीडाओं के बोझ की दरकार नहीं है----
क्योंकि, मेरे
वज़ूद की दीवारें---
अब कुछ, झुकने लगी हैं---
और, उनके कोने में रखे---
पुराने गुलदानों को,
कुछ, महकते फूलों की ज़रूरत है—
दूर---क्षितिज के उस पार
जाना है
कुछ, सपने जो शेष
हैं—
ढूंढ कर, लाना है उन्हें—
हो सकता है---
उडान—लंबी हो
पंखों के बोझों को, पुनः
हलका करना ही होगा—
उन पर,उम्मीदों
के कंगूरे
टागूंगी मैं---
जब मैं----
उगते हुए सूरज के पास से—
गुजरूंगी ,बोझिल पलकों के साथ
तो, वे सिंदूरी हो
जायेंगे---
ढलते सूरज के
तले—
सोने
से, पिघल जाएंगे वे---
मुझे अब, पीडाओं
के बोझ की----
जीवन की अनवरत
यात्रा के दौरान, पीछे मुडकर, देखने की प्रिक्रिया में,तय किये रास्तो पर
पडे फूल और कांटे
सब नज़र आते है,अनुभूतियों के रूप में. एक अहसास हमारे व्यक्तित्व
को और निखार जाता
है—जो अक्श होता है हमारे संघर्शों की तपिश का.
क्या हमें उम्र के
किसी पडाव पर रुक जाना चाहिये?
नहीं, जीना ही
होगा,तपिश में पिघलना ही होगा—जीवन को अर्थ देने के लिये.
सादर आभार के साथ—आप
सबकी टिप्पणियों के लिये,जो, निसंदेह मेरे लेखन को तपा रहीं हैं.
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