Wednesday, 5 September 2012

कुछ अहसास—सुनामी से---


१.जब-जब---

         रूठी हूं---तुमसे

         सो बार मरी हूं, मैं

         हर मौत को ओढ,कफ़न सा

         अर्थी सी, उठ गई हूं,मैं

२.देखो----

         हर ओर,इठलाती सी

         छिटकन,बिछड्न की

         घुन सी, देह की काठी में

         घुन रही है मुझको,हर-पल

३.हर-एक यहां---

         टूटता है,अलग-अलग

         चटक-चटक,हो जाता—भस्म-भस्म

         हर-एक,ओढे बैठा है---

         चादर,चिंगारी की,जो बुझती नहीं

४.चूल्हे में---

         अधजली-अधबुझी,चुकी हुई

         लकडी का एक छोर—

         बुझने से पहले,शोला बन जाती है

         गर्म राख की ढेरी में----

                                 हर-एक यहां,ओढे है चादर

                                 चिंगारी की----- कि

                                 हवा चली नहीं---

                                 और,चटक कर,बिखर गई---  
मानवीय-आस्तित्व—अहसासों की लहरों पर--- कभी ज्वार-भाटा बन तूफानी हो जाता है,
तो कभी,चांदी सी रेत पर फैला नीला आंचल---मन मचल जाए ओढने को.
  

                                              

6 comments:

  1. कुछ है जो बहुधा मन उद्वेलित करता है..

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बृहस्पतिवार (06-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!
    अध्यापकदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  3. जैसे मन को खोल कर रख दिया हो ...

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  4. बहुत सुंदर !

    चिंगारी चटकाती है
    अपनी इच्छा से
    नहीं जलाती
    लकड़ी को भी
    लोहे को गलाती है
    जब उसके मन
    आती है !

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  5. पीड़ा का भी साधारणीकरण कर दिया है आपने -सौ बार अगर तुम रूठ गए हम तुमको मना ही लेते थे ,एक बार अगर हम रूठ गए तुम हमको मनाना क्या जानो .....
    बृहस्पतिवार, 6 सितम्बर 2012
    नारी शक्ति :भर लो झोली सम्पूरण से

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  6. मन में जब जब ऐसे ज्वर उठते हैं ... नई रचना का जन्म होता है ...

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