१.जब-जब---
रूठी
हूं---तुमसे
सो बार मरी
हूं, मैं
हर मौत को
ओढ,कफ़न सा
अर्थी सी,
उठ गई हूं,मैं
२.देखो----
हर ओर,इठलाती सी
छिटकन,बिछड्न की
घुन सी,
देह की काठी में
घुन रही है
मुझको,हर-पल
३.हर-एक यहां---
टूटता
है,अलग-अलग
चटक-चटक,हो
जाता—भस्म-भस्म
हर-एक,ओढे
बैठा है---
चादर,चिंगारी की,जो बुझती नहीं
४.चूल्हे में---
अधजली-अधबुझी,चुकी हुई
लकडी का एक छोर—
बुझने से
पहले,शोला बन जाती है
गर्म राख
की ढेरी में----
हर-एक यहां,ओढे
है चादर
चिंगारी
की----- कि
हवा चली
नहीं---
और,चटक कर,बिखर
गई---
मानवीय-आस्तित्व—अहसासों की लहरों पर---
कभी ज्वार-भाटा बन तूफानी हो जाता है,
तो कभी,चांदी सी रेत पर फैला नीला आंचल---मन मचल जाए ओढने
को.
कुछ है जो बहुधा मन उद्वेलित करता है..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बृहस्पतिवार (06-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
अध्यापकदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जैसे मन को खोल कर रख दिया हो ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteचिंगारी चटकाती है
अपनी इच्छा से
नहीं जलाती
लकड़ी को भी
लोहे को गलाती है
जब उसके मन
आती है !
पीड़ा का भी साधारणीकरण कर दिया है आपने -सौ बार अगर तुम रूठ गए हम तुमको मना ही लेते थे ,एक बार अगर हम रूठ गए तुम हमको मनाना क्या जानो .....
ReplyDeleteबृहस्पतिवार, 6 सितम्बर 2012
नारी शक्ति :भर लो झोली सम्पूरण से
मन में जब जब ऐसे ज्वर उठते हैं ... नई रचना का जन्म होता है ...
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