Thursday, 12 April 2012

मिलियन डालर- Question


विभिन्न देशों में,विभिन्न करेंसी का प्रचलन है—विनिमय के उद्द्येश्य से.
हमारे देश में,आज़ादी के के कुछ वर्ष पहले तक,ग्रामीण क्षेत्रों में बारटर सिसटम की प्रणाली भी कायम थी,जो शनेः,शनेः,उद्ध्योगीकरण के फलस्वरूप विलुप्त भी हो गई.
उद्ध्योगीकरण के फलस्वरूप ,देशों की दूरियं भी कम होती चली गईं, और, वैश्वीकरण की अवधारणा ने जन्म लिया.
परंतु यह सब चलता रहा,दुनिया की अर्थ-व्ववस्था,एक स्तर से दूसरे स्तर पर कदम रखती चली गई,हर देश की एक निश्चित मुद्रा,(’करेंसी’ )अपने आस्तित्व में,विशिष्ट व मजबूत होती गई.
परंतु,प्रत्येक देश की मुद्रा की कीमत,केवल,डालर की तराजू के पलडे में ही रख कर,आंकी जाती है.
हालांकि,गाहे-बगाहे,हमारे देश का गरीब रुपया भी,थोडी सी उछाल ले कर,डालर पर हावी हो जाता है,परंतु,दूसरे दिन ही अपनी वस्तुस्थिति में आ जाता है,या, यूं, कहें कि अपनी औकात पर आ जाता है.
खैर,कुछ घंटे ही सही,हम भारतीय,एक गुमान लिये,अपनी-अपनी मुंडी को,कुछ ऊंचा कर ही लेते हैं.
बेशक,करेंसी के ट्रेक पर हम हांफ रहे होते हैं.
अब,देश की वह भाग्यशाली पीढी,जो अपने माता-पिता की जीवन भर की तपस्या के फलस्वरूप, ’डालर’ की छ्त्रछाया में पहुंच गई या हो सकता है,उनका  प्रारब्ध ही जोर मार गया ,और, वे भी,डालर की दुनिया में, सात समुंदर पार कर गये.
पर,कुछ भी हो,भारत का गणित अपने साथ ले जाना नहीं भूले.
जब भी,माटी की सुगंध उन्हें बुलाती है,या यहां की चिल्ल-पौं,जिसमें उन्होंने अपने कुछ वर्ष गुजारे,गाहे-बगाहे,वे उन दिनों को कोसते अवश्य हैं,फिर भी उनके आकर्षक से वे मुक्त नहीं हो पाते हैं,और,अमेरिकी ’माल’ से खरीदे,सूट्केसों को रोल करते हुए,भारत की धरती पर कदम रख ही देते हैं,और कदम रखते ही,भारत का गणित जो सुसुप्त अवस्था में पडा होता है,तुरंत,जागृत हो जाता है,और फिर,एक बिसलरी की बोतल जो महज़ १२ रुपए की होती है वह भी उन्हें,सेन्ट की नज़र आने लगती है.
५०रुपए का बर्गर,१डालर का नज़र आने लगता है,गुणा-भाग के चक्कर में भूल जाते हैं,जिस माटी की महक,उन्हें १०,००० किलो मीटर की यात्रा करा कर,सात समुंदर पार करा कर यहां तक ले आई,जिसके लिये,उन्होंने,२-३ वर्ष छुट्टियों की बचत की,बाकी रह गई,डालर की पकड.
जो,जकडे रहती है,ताउम्र,कमाते डालरों में हैं,और,खर्च रुपयों में करते हैं.

3 comments:

  1. अपने घर का आनन्द दूसरों के घर का कष्ट।

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  2. अंत में हैं तो भारतीय ही ... सही लिखा है ...

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  3. यह गणित ही तो उलझाये रहता है....सब सुलझ ही जाये तो जीना कहाँ संभव!!! इस पार/ उस पार - डॉलर/रुपया- बस, उलझन की नांव पर सवार सफर कटा जा रहा है. :)

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