Monday 5 September 2011

यात्रा-चरित्रम

हम सभी,कभी न कभी,यात्रा-रूपी कार्य-कलापों में,अपने-आप को,ज़रूरत तो कभी बे-ज़रूरत,उलझाए रहते हैं.
यूं तो,मानव बाइ-नेचर,खानाबदोश ही था.सदियों तक,वह इस बाइ-नेचर के कारण,स्थाई निवास न बना पाया,परंतु, जैसा कि हम जानते ही हैं,इस धरती पर मनुष्य ही एक ऐसा जीव है,जिसकी आवश्यकताएं निरंतर बदलती रहीं और बढती रहीं.बाकी और सभी जीव,बहुत हद तक उन्हीं आवश्यकताओं के सहारे जी रहें हैं,जैसे कि वे जीते आए हैं.वही भूख-प्यास,उन्हें शांत करने के वही सीमित साजो-सामान.
अब,चूंकि आवागमन के साधन,बहुवैकल्पिक व तीव्रगामी हो गये हैं, अतः मानव-जाति के जीवन का अधिकांश भाग,यात्राओं में व्यतीत होता है.ये यात्राएं उद्येशीय तो होती ही हैं,कभी-कभी,निरुद्येशीय भी होती हैं.
जैसे कि,आज घर से बाहर निकलना है तो निकलेगे ही,हां,यह बात अलग है,कि यात्रा के दौरान कोई उद्येश हाथ लग जाय,चलो घर से निकले हैं,तो दस रुपए के गोल-गप्पे ही खा लिए जांय या आधे रास्ते,घर फोन करके पूछ लिया जाय—कुछ लाना तो नहीं है? इस प्रकार,निरुद्येशीय यात्रा भी उद्येशीय हो ही जाती है.
वैसे,मैंने भी अपने लम्बे जीवन में,लंबी-छोटी,कई यात्राएं की हैं,करीब-करीब,यात्रा के सभी उपलब्ध साधनों के द्वारा,हां,समुद्री-यात्रा को छोड कर.
अभी,पिछले सप्ताह,मुझे अपनी छोटी बहन के साथ,आगरा से लखनऊ जाने का अवसर मिला,यात्रा ट्रेन से थी और करीब छे-सात घंटे की यात्रा थी.
निर्धारित समय पर,ट्रेन आ गई,और हम अपने आरक्षित डिब्बे में.आरक्षित सीट पर इत्मीनान से बैठ गये.
अभी ठीक से सामान भी स्थिर ना हो पाया था ना ही अस्थिर सांस.
तभी एक सज्जन हमारे पास आए और कहने लगे—आप लोग हमारी फ़लां नंबर सीट पर बैठ जांए,चूंकि,बगल वाली सीट पर हमारे साथी बैठेम हैं,अतः यह हमारे लिए सुविधाजनक रहेगा.
हम,उन सज्जन को ऊपर से नीचे तक निहारते रहे और सोचा कि सीट तो फिर भी,अलग-अलग ही हैं और जोसीटें वे हमें आफर कर रहे थे,वे भी अधिक दूर नहीं थीं.
समझ नहीं आया,किस सुविधा की ओर उनका इशारा था,ऐसा भी नहीं था कि उन सबको एक ही थाली में खाना खाना था,तो इतना नज़दीक होना लाज़िमी था या रात की यात्रा थी,अतः डर न लगे,इसलिए एक-दूसरे की नज़दीकी का उन्हें अह्सास उन्हें साहस देता रहे,या और भी कोई कारण हो सकता हो जो हमें नज़र नहीं आ रहा था.
कुछ देर बाद,वही सज्जन कंडक्टर के साथ उसी अपील को लेकर हाज़िर हो गए,शायद वे आपस में परिचित हों.
उन दौनों ने मिल कर पुनः आग्रह किया कि हम सीट बदल लें.खैर,हमें उनकी नम्रता व आग्रह के समक्ष नतमस्तक होना पडा और उनके द्वारा परोसी सीट पर जा कर बैठ गये.
इस वृतांत से,अनायास ही एक विचार कोंधा कि संसार के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में यात्रियों की मनोदशा,उनकी पसंद-नपसंद,उनका साथी यात्रियों से व्यवहार,उनका स्वार्थ-निस्वार्थ,उनकी मान-मनुहार आदि-आदि,भिन्न-भिन्न होती हैं.
मैं,इस निष्कर्ष पर पहुचीं हूं कि,हम भारतीय यात्रियों की एक विशेशता है या मनोदशा है—जब भी वे यात्रा कर रहे होते हैं,वे अपनों से कुछ इन्च की दूरी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं,अपनों की सांसे उन्हें छूती रहनी चाहियें.



1 comment:

  1. बहुत सच कहा आपने। भले ही घर में साथ साथ न बैठें पर ट्रेन में अलग नहीं रह सकते हैं।

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