संवेदनशीलता बनाम असंवेदनशीलता-----
करीब ४०,५० वर्ष के छोटे से अंतराल में हमारी सामाजिक,आर्थिक वा पारिवारिक प्रारूप में जो
दुखद वा असंवेदनशील परिवर्तन देखने को मिलते हैं और लगता है हमारी जिंदगियों को विषधर नागों
की भांति जकदते जा रहे हैं,हमारी जीवन से हर रस को निचोड़ रहे हैं,हम नासर्गिक सौंदर्य से चिटक रहे हैं.
सुविधाओम को हमने सुख समझ लिया है,मशीनी जिंदगियों के मुहताज हो मशीन होते जा रहे हैं.
संवेदनाएं कहीं खो गयी हैं,उनके के साथ,साथ हम भी खोते जा रहे हैं.
परिवार का ढांचा ऐसे बदल गया है जैसे कोइ धोबी घात पर पीट,पीट कर निचोड़ा लाया हो
परिवार के नाम पर सब कुछ चिथड़े,चिथड़े हो गया है.
५०,६०,७०तक के दशकों तक परिवार बगैर दादी,दादाजी,के पूरा ही नहीं होता था.
परिवार मानों एक पिरामिड हुआ करता था रिश्तों का एक ही घर में.
और इंसानी वजूद के अलावा घर में पालतू एक,दो कुत्ते,बिल्लियां जो कहीं से भी आकर घर को
स्वाधिकार से अपना घर बना लेती थीं और कालांतर में हर सालएक,दो बार उनके नवजात बच्चे घर में
धमाचोकदी करते रहते थे,अक्सर दूध में मुंह दाल ही देते थे,लेकिन कोइ बड़ा मामला नहीं बनाता
थाजब अपीढ़े पर बैठीं दादी जी का आदेश आ जाता था--जब मुंह दाल ही दिया है तो पी लेने दो.
संदर्भ से आगे--एक वाकया का जिक्र करना चाहूंगी.
जिन दशकों की बात कर रही हूं,तब स्कूलों की गर्मियों की छुट्टियां पूरे दो माह की हुआ करती थीं.अक्सर बच्चे इन लम्बी,लम्बी छुट्टियों में अपनी दादी या नानी के गांव चले जाया करते थे,साथ में माता,पिटा का जाना जरूरी नहीं होता था.
एक और बात थी बच्चों को इतने लम्बे समाया के लिए दादी,नानी के संपर्क में चोदने का कि बच्चे कुछ संस्कार सीखा सकें उनके साथ रह कर और साथ,साथ दादी,नानी को अपने नाती,पोतों के साथ वक्त मिला जाया गुजारने के लिए.
दादी,नानियों के चूल्हे कभी बुझाते नहीं थे या कि,यूं कहा लें उनके चूल्हे ठंडे नहीं होते थे जब बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में उनके पास पहुंच जाते थे.
क्या खाएंगे,
कब खाएंगे बच्चे इन सब बातों का कोइ ओचित्य नहीं था.
गाम्वोम में शामें जल्दी घिर आतीं थीं,बमुश्किल एक लालटेन और एक,दो मिट्टी के तेल की कुप्पियाम होतीथीं जो हाथ में लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना हो पाटा था,घरों में.
तेल की कुप्पी को संभालना बड़ा मुश्किल का काम था एक हाथ में कुप्पी और दूसरे हाथ से कुप्पी की ओत रखनी होती थी ज़रा सी हवा चली नहीं और कुप्पी फक्का से बुझ जाती थी.
तब दादी,नानी कीपुकार लग जाती थी--आरमीना,अरेमंजू ज़रा माचिस लाना--अरे,लाली वहीं खडी रहना डरना नहीं,किसी से टकराना नहीं---
निर्देशों की लादियामपिरोई जाने लगतीं,लेकिन इसा दौरान उस कुप्पी वाली की जो हालत हो जाती थीथी--यह सोच करकि,चूहे,बिली,कुत्तेजो घर के सदस्य होते थेमगर एक और सदस्य हमारे आत्मीय सहचर,सर्पदेवता कहीं से टपक पदम या कि पैरों के ऊपर से निकल जाएंया कि चाट से लटके दिखा जाएं,या कि आंगन में हेमदा पाइप के पास पानी पीने आ गए होमतो क्या होगा--?
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