Sunday, 15 August 2021

ग्रेनीज हाउस-----

पिछली बार जब मैं अपने छोटे बेटे के यहां सिडनी,आस्ट्रेलिया उनके परिवार के साथ कुछ वक्त गुजारने गयी हुई थी.

वहां का मौसम कभी,कभी ठंडा सा हो जाता है सो उनके बड़े से घर के पिछवाड़े बड़े सेअहाते में धूप सेंकने के लिए दिन में बैठ जाया करती थी.

करीब १०,१२ दिनों से खट,ख़ट की आवाज सुनती रहती थी जो बगल वाले घर से आती थी.

आवाज बड़ी लयबद्ध थी,कभी,कभी ध्यान लग जाने का सा आभास होने लगता था.

परन्तु एक दिन कौतहूलवश बेटे पूछ ही लिया--ये आवाज कैसी आती रहती है,बगल वाले घर से?

बेटे ने मुझे बताया कि, बगल वाले घर में ग्रेनीज हाउस बना रहे हैं.

मैं थोड़ा अचरज में पड़ गयी--जब पहले से ही इतना बड़ा घर है तो ग्रेनीज--दादी के लिए अलग से घर क्यों बना रहे हैं.

बेटे ने सहज भाव से कहा--मम्मी यहाँ इन देशों में ऐसा ही रिवाज है.ना तो बच्चे बुजुर्गों को अपने साथ एक ही घर में रखना चाहते हैं ना ही बुजुर्ग बच्चों के साथ एक ही घर में रहना चाहते हैं.

बात आई,गयी हो गयी.

इस बात को भी करीब तीन साल गुजरने को हो आए.

इस बीच कोरोना की एक,दो लहरें आईं और चली भी गईं,अब तीसरी की तैयारी चल रही है.

पानी बहुत सारा बह गया है.

हम सभी भी देखते,देखते बहुत कुछ,कुछ और होते जा रहे है.कारण कई हैं कुछ वास्तविक तो कुछ भय के कारण तो कुछ जीवन के प्रति भरोसा भी कम हो रहा है,हर दिन--सबसे बड़ी बात है.

खुद पर भरोसा तो चला ही गया है.

खैर-बात को ज्यादा लम्बी करना ठीक नहीं है से जो बात कहने की है--वह यह है--

अब,मुझे ग्रेनीज,ग्रेंद्पा वाली बात ज्यादा समझ आने लगी है.

हम अपने ग्रान्ड पेरेंट्स के साथ क्या कर रहें हैं, बहुत कडुवी सच्चाई है,जिसे देखते हुए भी हम नहीं देखना चाहते.

जिन्होंने हमारे लिए एक,एक ईंट जोड़ कर घर बनाए,बच्चों के मांगने से पहले ही उनको दे दिए,खुशी,खुशी. जोअपने घर के अगवाड़े में रहते थे,वे धीरे,धीर अपने ही घर के पिछवाड़े चले नहीं ,भेज दिए गए,जहां से उनकी आवाज अगवाड़े तक बमुश्किल आती है और जिसे सुन कर अक्सर उनसुनी कर देते हैं,अपने ही.

यहाँ बात थोड़ी गले उतर भी जाती पर  बुजुर्गों का स्व्वातंत्र,

उनका सम्मा.उनका अपना लहजा जीने का--सभी कुछ दांव पर लग जाता है महज कुछ वर्षों के लिए जो उनके पास शेष बचते हैं ५०,६०वर्षों की मेहनत,त्याग और ना जाने क्या,क्या गुजरा जाता है--

तब जाकर उन्हें ये सब कुछ मिलता है अपनों से.

ग्रेनीजा हाउस में बुजुर्ग बेशक थोड़ा एकेले अवश्य हो जाते हैं लेकिन कम से कम वे अपनी आजादी को अपनी बैठने,उठने की आजादी को कायम रख पाते हैं.हर समय बेफुजूल की टोका,टोकी से निजात पा लेते हैं.

बेशक--

उनकी आवाज अपनों तक थोड़ी देर में पहुँचती है लेकिन दिन में दो,तीन बार उन्हें सुनने पहुंच तो जाते ही हैं उनके अपने.

हमारे बुजुर्ग कमरों से कमरे सटे हुए में रहते हैं फिर भी उनकी आवाज एक ६इंची दीवार को भी पार नहीं कर पाती है.

यह मेरे विचार हैं.

उनके ग्रेनीज हौसा बेहतर हैं,हमारे पिछवाडॉ से.





1 comment:

  1. फिर भी अच्छा लगता है मिल कर रहना बच्चों के साथ और बुजुर्गों के साथ एक साथ भारतीय सोच के परिवार माना की बहुत कम रह गए हैं

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