सुख--सुविधाएं---
कुछ दशक पहले तक दिन में कई,कई बार बड़ों के पैरों तक झुकना होता रहता था--कई,कई बार आशीर्वाद भी मिल जाते थे.
अब ना झुकना होता है बड़ों के पैरों तक ना ही आशीर्वाद मिलते हैं, खुश रहने के.
शब्दों में भी शक्ति होती है,हर शब्द की अपनी ऊर्जा होती ,जैसे शब्दों के भाव होते हैं ,वैसी ही उनकी ऊर्जा आस्तित्व में फैल जाती है.
लेकिन,
अब सुख,सुखी शब्दों की ऊर्जा चूक गयी है क्योंकि,उनके इस्तेमाल कम हो गए हैं या कि, ना ही हो रहे हैं.
मशीन भी बगैर इस्तेमाल के जंग खाने लगती है.
असल में,सुख भी सुविधाओं के बीच में घिर कर बे-असर हो गया है.
हम भी सुविधाओ को सुख मानने लगे हैं.
घर बेजान सामानों से बोझिल होते जा रहे हैं,घरों की दीवारें खो रहीं अपनी,अपनी सीमाओं में.
कितने भी बड़े घर क्यों ना हों वे रहने वालों के लिए छोटे होते जा रहेहैं.
सामानों से टकराए बगैर एक कमरे से दूसरे कमरे तक पहुँचना ब-मुश्किल है.
कुछ दशक पहले तक दो कमरों का घर अच्छा खासा बड़ा घर माना जाता था.
घर का एक कमरा पुरुष सदस्यों के लिए,एक महिलाओं वा बच्चों के लिए पर्याप्त होता था.
साथ में बरांडा ही आल परपज जगह होती थी,जहां सब कुछ सिमट जाता था,जो कहीं और ना समेटा जा सके.
और,घर का आंगन तो घर की आन,बान वा शान हुआ करती थी,जहां तुलसी का विरबा अपनी पवित्रता को चौबीस घंटे बिखेरता रहता था.
आँगन के एक तरफ फुलवारी के लिए भी जगह निकल आती थी,जहां बच्चे,बड़े,बुजुर्ग अपनी,अपनी पसंद की फुलवारी लगाते ही रहते थे.बारिश के मौसम में कुछ अधिक ही प्रयोग चलते रहते थे,जहां से जो मिला रोप दिया बगीची में.
हाँ जी,, बात हो रही थी सुख,सुविधाओं की,सो शाम ढलते ही चारपाइयों की कतारें बिच जाती थीं.बैठक में पुरुषों की और वयस्क लड़कों की,मेहमानों की भी एडजस्ट हो जाती थीं,दो,चार, चारपाइयां.
सुबह की होन में बिस्तर सिमट जाते थे.हर घर में बड़े,बड़े संदूक होते थे उन पर एक के ऊपर एक बिस्तर चीन दिए जाते थे.कभी,कभी अनुपात से अधिक होने पर बिस्तर जमीन पर गिरते पड़ते रहते थे.
और,पूरा घर खाली,खाली सा हो जाता था,रोनकों के लिए जगहें हो जाती थीं.
अब,सुविधाओं की डस्टिंग करते,करते आधी से अधिक जिन्दगी धुल फांक रही है.कोइ आए या ना आए सुविधाएं हर समय करीने से घर के कोनों को घेरे पडी रहती हैं.
और--हम घर के सुखों को घर से डस्टिंग करके घर के बाहर फेंक देते हैं.
थोड़ा बोझ हलका करना होगा सुविधाओं का ,अपनी जिन्दगी से.
थोड़ी जगह खाली छोड़नी होगी सुखों के लिए, घर के अन्दर आने के लिए.
और--
सामानों से ज्यादा प्यार हमें अपनों से करना होगा जो कभी,कभी ही आ पाते हैं.
अब तो कोरोना ने यह रिवाज भी खत्म कर ही दिया--
कौन किसके यहाँ जाए,या कि ,ना जाए.
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